जलवायु में बदलाव के चलते भारतीय समुद्र तटों को नुकसान पहुंच रहा है। हाल के एक अध्ययन में सामने आया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते भारत के समुद्र तट धीरे-धीरे सिकुड़ रहे हैं। रेत समुद्र में बह रही है और तटरेखा बदल रही है। भारत का पश्चिमी तटीय मैदान दक्कन पठार के पश्चिमी भाग और अरब सागर के बीच स्थित है। यह मैदान गुजरात के कच्छ क्षेत्र से लेकर तमिलनाडु में भारतीय प्रायद्वीप के सबसे दक्षिणी छोर कन्याकुमारी तक फैला हुआ है। इसकी पूर्वी सीमा पश्चिमी घाट बनाती हैं। यह वह स्थान है जहां समुद्र जमीन से मिलता है। हज़ारों वर्षों से लहरों और ज्वार-भाटे के चलते इन तटों का आकार बदलता रहा है।
समुद्र तटों पर जलवायु परिवर्तन का असर समझने के लिए गोवा के सीएसआईआर-नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशनोग्राफी, गाजियाबाद के एकेडमी ऑफ साइंटिफिक एंड इनोवेटिव रिसर्च और तिरुचिरापल्ली के भारतीदासन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने भारत के पश्चिमी तट पर खाड़ी वाले समुद्र तटों पर अध्ययन किया। खाड़ी वाले समुद्र तट वे होते हैं जो खाड़ियों में यानी अक्सर चट्टानों के बीच बसे होते हैं। पिछले 30 सालों में बदलती जलवायु और मानवीय गतिविधियों के कारण इनपर असर पड़ा है। शोधकर्ताओं ने पिछले 30 सालों के डेटा के आधार पर ये पता लगाया कि समुद्र तटों में किस तरह के बदलाव देखे जा रहे हैं। अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया कि समुद्र के बढ़ते स्तर, चक्रवातों में बढ़ोतरी और बढ़ती तेज लहरों के चलते बहुत से समुद्र तटों में कटाव हुआ है वो पीछे की ओर खिसक रहे हैं। उनका काफी हिस्सा समुद्र में चला गया है। अध्ययन में पाया गया कि तटों के करीब लहरों से बचाव के लिए बनाए जाने वाले ब्रेकवाटर और नेविगेशन चैनलों को चिन्हित करने और जहाजों को खड़ा करने के लिए बनाई जाने वाली जेटी के चलते भी तटों को नुकसान पहुंचा है।
राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डॉक्टर मणि मुरली और पुनीत कुमार मिश्रा ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि इस अध्ययन में भारत के मध्य पश्चिमी तट के सत्ताईस खाड़ी वाले समुद्र तटों को शामिल किया गया। अध्ययन में पाया गया कि फरवरी से सितंबर तक समुद्र तट का आकार काफी घट गया। विश्लेषण से पता चला है कि मिर्या तट में सबसे ज्यादा कटाव दर्ज किया गया। ये लगभग 81.72 मीटर था। इसी तरह उंडी बीच पर लगभग 62.5 मीटर कटाव दर्ज किया गया। अध्ययन में पाया गया कि पलशेत, हेदवी और वेंगुर्ला सहित आठ खाड़ी समुद्र तटों में कटाव दर्ज किया गया। इस कटाव के कारणों का पता लगाने के लिए जलवायु में हुए बदलाव के डेटा का विश्लेषण करने पर पता चला कि समुद्र के बढ़ते स्तर, चक्रवातों की बढ़ती आवृत्ति और तेज होती लहरों के चलते ये कटाव दर्ज किए गए हैं।
वैज्ञानिकों ने 1990 से 2023 के बीच प्रत्येक समुद्र तट पर अलग-अलग बिंदुओं पर तटरेखा के खिसकने की दूरी की गणना करने के लिए नेट शोरलाइन मूवमेंट विधि का इस्तेमाल किया। इससे उन्हें इस बात की अधिक सटीक तस्वीर मिल गई कि समुद्र तट कहां पीछे हट रहे हैं। इस विश्लेषण में पाया गया कि पलशेत, हेदवी और वेंगुर्ला सहित आठ समुद्री तट तटरेखा से पीछे हटे हैं। नेशनल सेंटर फॉर अंटार्टिक एंड ओशन रिसर्च के पूर्व निदेशक (NCAOR) डॉक्टर प्रेम चंद्र पांडेय कहते हैं कि गर्मी बढ़ने के साथ ही समुद्र का पानी फैलता है। ऐसे में समुद्र के जलस्तर में वृद्धि होती है। जलस्तर में बढ़ोतरी से किनारों के डूबने का खतरा बढ़ जाता है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते बहुत से तटीय इलाकों के डूबने का संकट बढ़ा है।
वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग को समुद्र की सतह के बढ़ते तापमान और ज्यादा साइक्लोन आने की वजह मान रहे हैं। मौसम वैज्ञानिक समरजीत चौधरी कहते हैं कि निश्चित तौर पर ग्लोबल वार्मिंग समुद्रों के तापमान बढ़ा रहा है। समुद्र का तापमान बढ़ने की वजह जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल के साथ ही दुनिया भर में तेजी से बढ़ रहा प्रदूषण भी है। आज दुनिया में दो बड़े युद्ध चल रहे हैं। यहां मिसाइल और बमों से निकलने वाली गर्मी भी पर्यावरण को गर्म कर रही है। कई बड़े ग्लेशियर जो समुद्र में ठंड को बनाए रखने में मदद करते थे वो गर्मी बढ़ने से टूट रहे हैं। ऐसे में समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले दिनों में समुद्र की सतह का तापमान और बढ़ेगा और इस तरह के भयावह तूफानों और सूखे जैसी एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट्स की संख्या तेजी से बढ़ेगी।
सैसीवाटर्स और क्लाइमेटराइज एलायंस द्वारा जारी शील्ड्स ऑफ द शोर नाम के एक शोधपत्र में कहा गया है कि समुद्री घास के मैदान, जो भारत के समुद्र तट के लगभग 516.59 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले हैं, जलवायु परिवर्तन के कारण सिकुड़ रहे हैं। मछली पकड़ने के अनियंत्रित तरीकों और समुद्र में बढ़ते प्रदूषण के चलते भी इनको नुकसान पहुंचा है। इस पारिस्थितिकी तंत्र को “ब्लू कार्बन पारिस्थितिकी तंत्र” कहा जाता है।
जैव विविधता संरक्षण लाखों तटीय निवासियों की आजीविका के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। भारत के मैंग्रोव, समुद्री घास और दलदली क्षेत्र लाखों लोगों के लिए महत्वपूर्ण पारिस्थितिक खजाने के तौर पर देखे जाते हैं ये उनकी जीवन रेखा हैं। उन्हें बहाल करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग, ठोस वैज्ञानिक ज्ञान और पारंपरिक ज्ञान को ध्यान में रखते हुए ऐसी नीतियां बनाने की आवश्यकता है जो अल्पकालिक लाभों की तुलना में दीर्घकालिक परिणाम को प्राथमिकता दें।
रिपोर्ट के मुताबिक “मैंग्रोव, समुद्री घास और दलदली क्षेत्र न केवल वर्षावनों की तुलना में पाँच गुना अधिक कार्बन को सोखते हैं, बल्कि तूफानी लहरों, तटीय कटाव और समुद्र के बढ़ते जलस्तर के स्तर के खिलाफ प्राकृतिक अवरोध के रूप में भी काम करते हैं। जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियां बढ़ने से इन्हें काफी नुकसान पहुंच रहा है। इस पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। भारत ने 2021 से अब तक लगभग 7.43 वर्ग किलोमीटर मैंग्रोव कवर खो दिया है, गुजरात और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह जैसे राज्यों में मैंग्रोव के क्षेत्र में काफी कमी दर्ज की गई है।