Waqar Rizvi
आज 9 मोहर्रम है इसलिए ही ये तारीख़ उदासी और ग़म को और गहरा कर देती है। लेकिन आज मजलिस से ज़्यादा उस वक़्त रोना आया जब एक क़दीम इमामबाड़े के करीब से गुजऱ रहा था और वहां एक ज़ाकिर साहब जा़ेर शोर से मजलिस के नाम पर जो कुछ पढ़ रहे थे वह नक़ल कुफ्र कुफ्र न बाशद के बावजूद नकल नहीं कर सकता। हमने कई बरस की मेहनत से एक ऐसा माहोल बनाया है कि लखनऊ में किसी तरह का फसाद ना हो जिसके लिये शहर अदब बदनाम होता रहा है।
इमाम हुसैन ने इंसानियत और इख़लाक़ का दर्स दिया और अपने अमल से करबला को इख़लाक़़ व इन्सानियत की दर्सगाह बना दिया। आज इसी दर्स से अगर ऐसी बातें नश्र हों जो इख़तिलाफ व निफाक़ को बढ़ावा दें तो ये अमल हुसैनी नहीं हो सकता यह मिम्बरे रसूल है इस पर बद इख़लाक़ी की ज़बान इस्तेमाल करना और उस पर बैठ कर किसी को बुरा कहना जो मुसलमानों में नि$फाक़ का सबब बने हुसैन जिस का हम ग़म मना रहे हैं उनको तकलीफ पहुंचाना होगा। हम बार-बार अपने मराजए कराम के एलानात शाए कर रहे हैं के हमारा अमल इत्तेहाद दोस्ती और मोहब्बत के लिए होना चाहिए जिसकी मिसाल इमाम हुसैन ने मदीना से सफर से लेकर करबला के आखिऱी लम्हात तक दी। हम आखिऱ किस के पैरों हैं दावा तो हम रसूल और आले रसूल की पैरवी का करते हैं लेकिन अमल कुछ और ज़ाहिर करता है। ये ज़ाकिरीन अपने जोश बयान में हुसैन की सारी इन्सानियत साज़ी और इख़लाक़ साज़ी पर अपने एक जुमले से पानी फेर देदे हैं न इन्हें खौफ़े इलाही है और न क़हर खुदा का डर।