Saturday, March 1, 2025
spot_img
HomeEditorialसितार का सितारा: रवि शंकर

सितार का सितारा: रवि शंकर

 

एस.एन.वर्मा
मो.7084669136
बात उन दिनों की है जब सितार वादक रवि शंकर जिन्दगी के आखिरी दौर की ओर बढ चले थे। कमज़ोर रविशंकर की सेहत तेजी से गिर रही थी। व्हील चेयर पर रहा करते थे। भारी सितार उठता नहीं था तो छोटे सितार का इजाद अपने लिये कर डाला था। बात कलफोर्निया के लागबीच की है जहां चार नम्बर 2012 को टेरास थियेटर में अपना कार्यक्रम देने आये थे। पंचम से गारा राग उठाया और तिहाई से खत्म किया। उनकी लड़की अनुष्का साथ थी। कार्यक्रम खत्म होते ही तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बड़ा दर्दनाक नज़ारा उभरा उनके शिष्यों ने उनको उठाया। शंकर बच्चों की तरह भाववेग मंे सिसक रहे थे। इस कार्यक्रम के एक महीने बाद ही 92 साल की उम्र में 11 दिसम्बर को उनका स्वर्गवास हो गया। जैसे उन्हें अपने अन्त का आभास कि यह जिन्दगी का आखिरी कार्यक्रम है।
शंकर ने भारतीय संगीत को पश्चिमी जगत में उसका वांछित गरिमामय स्थान दिलवाने में महत योगदान दिया। शंकर से पहले भारतीय संगीत पश्चिमी जगत में विजातीय और नीरस माना जाता था। मशहूर वायलिन वादक मेनयूहिन ने शंकर के जीवन चरित में लिखा है कि शंकर ने भारतीय संगीत के शन्त-उत्फुल्ल रस का पश्चिमी जगत को स्वाद चखाया। शंकर अपने समय में पूरब और पश्चिम में सामान्य रूप से अतिलोकप्रिय रहे। उनका सुदर्शन व्याक्त्वि और दिलकश संगीत लोगों पर जादू कर देता था। महिलाओं के आकर्षण का केन्द्र बने रहे थे। लोगों में उनके प्रति दिवानगी का जनून था।
शंकर बनारस के बंगाली परिवार से सम्बन्ध रखते थे। 1920 में पैदा हुये शंकर का पूरा नाम रवीन्द्र शंकर चैधरी था। पिता महाराजा मालवर के दीवान थे। पिता ने राजा की नौकरी छोड़ कानून की पै्रक्टिस करने लन्दन चले गये। महाराज से कुछ पेन्शन मिलती थी जिससेे घर का खर्च चलता था। पांच भाइयों में शंकर सबसे छोटे थे। बड़े भाई उदय श्ंाकर पर आधुनिक नृत्य की महान हस्ती थी। पूरब और पश्चिम में सामान्य रूप से लोकप्रिय थे। उदयशंकर जैसे महान सेलिबे्रटी की छत्रछाया में शंकर का व्यक्तित्व निर्मित हुआ।
उदय शंकर भी परिवार छोड़ लन्दन आर्ट पढ़ने चले गये। यहां उदय 1923 में मशहूर बैलेट डान्सर पावलोवा को सम्पर्क में आये। उदय का व्यक्तित्व भी बहुत आकर्षक था। पावलोवा को भारतीय नृत्य की झांकी दिखायी। पावलोंवा के साथ उनके दल के साथ टूर करने लगे और आधुनिक नृत्य के सितारे बन गये। शंकर बनारस में रह कर रवीन्द्र संगीत सीखते रहे और बनारस के घाट की आरती सुनते रहे। 1929 में उदय बनारस आये और अपना दल बना नृत्यकला का प्रदर्शन करने लगे। आकर्षक छवि का लहकना, लचकना देख लोग आत्मविभोर हो जाते थे और उन्हें भारी लोकप्रियता मिलने लगी थी।
1930 में उदय अपने संगीतकारों को लेकर परिवार के साथ पेरिस चले गये। वहां शंकर इसराज, सितार, बवल पर हाथ फिराते रहे। वहां शंकर को उदय की टावरिग पर्सनाल्टी ने बहुत प्रभावित किया। वहीं उनमें कला के प्रति भूख और मानवीयता के प्रति उदार चेहरा की संवेदना पैदा हुई। वहीं उदय ने मैहर घराने के मशहूर सरोदवादक अलाउद्दीन खां को बतौर संगीत निर्देशक बुला लिया। वहां खां साहब ने 14 साल के आकर्षक व्यक्त्वि वाले शंकर को देखा जो लड़कियों के पीछे भागते रहते थे। पर शंकर में सीखने की जिज्ञासा भी थी और प्रतिभा भी थी। खां साहब ने उदय से कहा शंकर को हमारे पास भेज दो इसे हम कम से कम एक साज बजाना सिखायेगे। उदय राजी हो गये और शंकर कुछ साल बाद खां साहब के घर मैहर चले गये।
शंकर सात साल तक गुरू के चरणों में बैठ उनके पुत्र अली अकबर खां और पुत्री अन्नपूर्णा के साथ सीतार सीखते रहे। उन्हें अहसास था यह नायाब मौका है। वह महसूस करते थे कि तकनीक और स्पीड तो सीखी जा सकती है। पर भावनात्मक और बौद्धिक रूप से आत्मसात करना अलग बात है। जिसमें खुद की आत्मा और सुनने वाले की आत्मा भी झंकृत हो उठे। वह संगीत कठोर साधना के प्रति पूर्णा आत्मसमपर्ण से ही प्राप्त होगा। यह एक दो साल में नहीं प्राप्त होगा। शंकर ने सात साल की कठोर साधना के बाद पहला कार्यक्रम इलाहाबाद में दिया। कठोर साधना का प्रतिफल सामने था, लोग झूम उठे। व्यक्तित्व का जादू ऐसा कि लड़कियां फुसफुसा उठी कितना क्यूट है।
शंकर की लगन और प्रतिभा से उनके गुरू बहुत प्रभावित थे। जिसका नतीजा था कि जब उदय ने अलाउद्दीन से उनकी बेटी से अपने भाई शंकर की शादी का प्रस्ताव रक्खा खां साहब तुरन्त राजी हो गये। उस जमाने के लिहाज़ से हिन्दू मुस्लिम की शादी एक अनोखी घटना थी। शादी बाद शंकर फिल्मों में किस्मत आजमाने बाम्बे चले आये। मलाड में घर लिया और छोटे-छोटे कनसर्ट करने लगे। उस समय हर तरह के प्रगतिशील कलाकार, लेखक, अभिनेता, संगीतकार, गायक, नर्तक, शायर, बौद्धिक लोग इन्डियन पिपल्स थियेटर एसोसियेशन से जुड़ना अपना भाग्य समझते थे। इप्टा उनका तीर्थस्थल था और शंकर भी बतौर संगीतकार उससे जुड़ गये। वहीं उन्होंने इक़बाल की मशहूर नज्म श्श् सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा श्श् की धुन बनाई। यह 1944 के आस-पास की बात है। यहीं पन्डित नेहरू की किताब श्श्डिस्कवरी आफ इन्डियाश्श् पर बैले तैयार कर 1947 में नहरू की उपस्थिति में पर फार्म किया।
1946 में ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म श्श्धरती के लालश्श् और चेतन आनन्द की फिल्म नीचा नगर के लिये संगीत कम्पोज़ किया। इनके काम से प्रभावित हो फिल्मकार सत्यजीरे ने 1955 में पाथेर पंचाली के संगीत का भार शंकर को सौपा श्श्अप्पूश्श् ट्रियलजी के लिये संगीत का पूरा भार रे ने शंकर को सौपा। शंकर से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने शंकर पर एक डाक्यूमेन्ट्री शुरू की जो दर्भाग्य से पूरी नहीं हो सकी।
1949 में आकाशवाणी दिल्ली आ गये और बाद्य वृन्द के म्युजि़क डायरेक्टर बन गये। यहां शकर को सन्तूर वादक शिव कुमार शर्मा, बांसुरी वादक हरिप्रसाद चैरसिया, तबलावादक शिव कुमार शर्मा, तबला वादक अल्लारक्खां जैसे ज़हीन कलाकारों का साथ मिला। यही पर रवीन्द्र शंकर चैधरी ने अपना नाम छोटा कर रविशंकर कर दिया।
दिल्ली में विजनेस टायकून लाला श्री राम के सम्पर्क में शंकर आये। लाला श्री राम की सांस्कृति रूचि बहुत पैनी थी। वह तरह-तरह के कलाकारो, लेखको, बौद्धिक हस्तियों को अपने यहां नियन्त्रित करते रहते थे और तरह तरह के कार्यक्रम आयोजित करते रहते थे। यहीं पर विलायत खां के कहने पर शंकर उनके साथ शिरकत की कौन बेहतर था कोई नहीं बता सका।
एक बार विलायत खां रेडियो पर कार्यक्रम दे रहे थे। उलाउद्दीन खां कलाकार की कला से इतने प्रभावित हुये कि आदमी भेज पता लगवाया यह कौन कलाकार है। मतलब शंकर और विलायत दोनो अपनी कला में बेजोड़ थे। शंकर कहते थे विलायत की कला श्रंृगार का सार है हमारी कला धु्रपद अंग है।
1960 हिप्पियों का जमाना था। इस दल के हैरिसन ने शंकर से सितार सीखना शुरू किया। दोनो के मिलन का नतीजा हुआ कि भारतीय संगीत पाप संगीत पर छा गया। शंकर को कभी इसकी कल्पना भी नहीं थी। टिप्पियों को औघड़ शैली शंकर को पसन्द नहीं आती थी। पर इन्हीं लोगो के साथ शंकर ने मान्टेसरी पाप फेसिटवल 1967 और उडस्टाक पाप फेरिटवल 1969 में हिस्सा लिया। इसी फेस्टीवल में अमेरिकी महान गिटार वादक डेन्ड्रिक्स जल्पिन और राक जाइन्ट गे्रटफुल भी मौजूद थे। इसी सम्पर्क से में बाद में शंकर ने अमेरिकन कम्पोजर फिलिप ग्लास, मेनुहिन और विख्यात जाज सेक्साफोन वादक जान काल्टेªन के साथ भी संगत की। उडस्टाक और मान्टेसरी कनसर्ट ने शंकर को सोचने पर मज़बूर किया यहां के लोग क्या भारतीय संगीत को समझते है और पसन्द करते है। उन्होनंे पब्लिक की नब्ज पकड़ी और परर्फामेन्स के समय को कम किया जो यहां के लोगों को बहुत पसन्द आया।
भातीय संगीत के शुद्धता पोषकों ने नाक भौं सिकोड़ी पर शंकर की लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई। शंकर की इन कोशिशों से भारतीय संगीत पश्चिम में मोज़ार्ट, बाश, बिथोवन के समकक्ष आ गया।
किर्ति के शिखर पर पहुंचने के बाद शंकर की पहली शादी में दरार आनी शुरू हो गई और 1950 में अन्नपूर्णा देवी से अलग हो गये। उनके सम्बन्ध कई औरतो से बने। 1979 में कार्यक्रमों के प्रमोटर सूजोन्स के सम्पर्क में आये जिनसे एक लड़की संगीतकार नोराजौन्स आई। 1989 में लन्दन बैंकर सुकन्या राजन से शादी की जिनसे एक लड़की अनुष्का आई।
शंकर की आखिरी कृति सुकन्या नाम का एक अपेरा था जिसे अपनी पत्नी को समर्पित किया था। जब अस्पताल में भर्ती हुये तो अपने पुराने मित्र डेविड वाल्श को बुलाया जो उनके सहयोगी और म्युजि़क कन्डक्टर थे और उनको अपना विज़न बताया। अपेरा का प्रीमियर के कर्व थियेटर, लिसेस्टर में किया गया। बाद में लन्दन के रायल फेस्टिवल हाल में किया गया। दर्शकों के बाह बाह से थियेटर गंूज उठा।
भले जुगनू हो वो, सूरज हो या शम्मे फिरोज़ा
मगर तारीकियां लिखी हुई सबके मुकद्दर में

 

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -spot_img
- Advertisment -spot_img
- Advertisment -spot_img
- Advertisment -spot_img

Most Popular