जिस तंगहाली ने सुसाइड को किया था मजबूर, उसे हराकर खड़ा किया 700 करोड़ का साम्राज्य

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अवधनामा ब्यूरो

लखनऊ. यह कहानी उन लोगों में जीने की ललक पैदा कर सकती है जिनके हौसलों की उड़ान दम तोड़ चुकी है. यह कहानी उन लोगों के लिए नये रास्ते खोल सकती है जिनके सारे रास्ते बंद हो चुके हैं. जो लड़की रोजाना घर में मार खाती थी. जिसके लिए पैसा ख़्वाब के सिवाय कुछ न था, उसने खड़े होने की कोशिश की तो उसके घर वालों का हुक्का पानी बंद हो गया. उसे हर मोड़ पर जिल्लत की तस्वीर नज़र आयी मगर जब उसने अपनी मेहनत के बल पर खुले आसमान में परवाज़ की कोशिश की तो उसके रास्तों पर दौलत के ढेर लग गए. उसके दामन में पद्मश्री जैसा अवार्ड आ गया.

सामाजिक कार्यकर्त्ता डॉ. जितेन्द्र चतुर्वेदी जब इस लड़की के साथ अवार्ड लेने के लिए एक मंच पर मिले तो उसकी कहानी उन्होंने ऐसे अंदाज़ में साझा की कि अवधनामा ने महसूस किया कि इसे जन-जन तक पहुंचा दिया जाए, क्योंकि पता नहीं कौन इस कहानी को अपनी कहानी बना ले. पता नहीं कौन सुसाइड का रास्ता छोड़कर तरक्की के रास्ते पर मुड़ जाए. सुनिये कल्पना सरोज की कहानी डॉ. जितेन्द्र चतुर्वेदी की ज़ुबानी.

यह कहानी है उस लड़की की जिसने गोबर के उपले बनाने से शुरू कर खड़ा किया 700 करोड़ का साम्राज्य, 1-2 नहीं 8 कंपनियों की हैं मालकिन. नाम है पद्मश्री कल्पना सरोज.

हौसले बुलंद हों तो बंजर जमीन को भी गुलजार किया जा सकता है. कुछ ऐसा ही कर दिखाया है कल्पना सरोज ने. एक गरीब दलित लड़की की सच्ची कहानी. जिसने पति की यातनाएं सहीं. समाज के ताने झेले और इन सब से तंग आकर खुदकुशी की भी कोशिश की, लेकिन शायद किस्मत को कुछ और ही मंजूर था.

कल्पना आज 700 करोड़ की कंपनी की मालकिन हैं. कल्पना करोड़ों का टर्नओवर देने वाली कंपनी ‘कमानी ट्यूब्स’ की चेयरपर्सन और पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित हैं. इसके अलावा कल्पना सरोज कमानी स्टील्स, केएस क्रिएशंस, कल्पना बिल्डर एंड डेवलपर्स, कल्पना एसोसिएट्स जैसी दर्जनों कंपनियों की मालकिन हैं.

इन कंपनियों का रोज का टर्नओवर करोड़ों का है. समाजसेवा और उद्यमिता के लिए कल्पना को पद्मश्री और राजीव गांधी रत्न के अलावा देश-विदेश में दर्जनों पुरस्कार मिल चुके हैं. कुल मिलाकर देखा जाए तो कभी दो रुपए रोज कमाने वाली कल्पना आज 700 करोड़ के साम्राज्य पर राज कर रही हैं. चलिए जानते हैं कल्पना ने कैसे इतना बड़ा साम्राज्य खड़ा किया.

कल्पना का जन्म सूखे का शिकार रह चुके महाराष्ट्र के ‘विदर्भ’ में हुआ था. घर के हालात खराब थे और इसी के कारण कल्पना गोबर के उपले बनाकर बेचा करती थीं. 12 साल की उम्र में ही कल्पना की शादी उससे 22 साल के व्यक्ति से कर दी गई. कल्पना विदर्भ से मुम्बई की झोंपड़पट्टी में आ पहुंची. उसकी पढ़ाई रुक चुकी थी. ससुराल में घरेलू कामकाज में जरा सी चूक पर कल्पना रोज पिटती.

शरीर पर जख्म पड़ चुके थे और जीने की ताकत खत्म हो चुकी थी. एक रोज इस नर्क से भागकर कल्पना अपने घर जा पहुंचीं. ससुराल पहुंचने की सजा कल्पना के साथ-साथ उसके परिवार को मिली. पंचायत ने परिवार का हुक्का-पानी बंद कर दिया. हुक्का-पानी के साथ कल्पना को जिंदगी के सभी रास्ते भी बंद नजर आने लगे.

कल्पना के पास जीने का कोई मकसद नहीं बचा था. उन्होंने तीन बोतल कीटनाशक पीकर जान देने की कोशिश की लेकिन रिश्ते की एक महिला ने उसे बचा लिया. कल्पना बताती हैं कि जान देने की कोशिश उसकी जिंदगी में एक बड़ा मोड़ लेकर आई. ‘मैंने सोचा कि मैं क्यों जान दे रही हूं, किसके लिए? क्यों न मैं अपने लिए जिऊं, कुछ बड़ा पाने की सोचूं, कम से कम कोशिश तो कर ही सकती हूं.’

16 साल की उम्र में कल्पना फिर मुम्बई लौट आई, लेकिन इस बार पिटने के लिए नहीं एक नई जिंदगी शुरू करने के लिए. मुम्बई पहुंची कल्पना को हुनर के नाम पर कपड़े सिलने आते थे और उसी के बल पर उसने एक गारमेंट कम्पनी में नौकरी कर ली. यहां एक दिन में दो रुपए की मजदूरी मिलती थी जो बेहद कम थी. कल्पना ने निजी तौर पर ब्लाउज सिलने का काम शुरू किया.

एक ब्लाउज के 10 रुपए मिलते थे. इसी दौरान कल्पना की बीमार बहन की इलाज न मिलने की वजह से मौत हो गई. कल्पना बुरी तरह टूट गई. उसने सोचा कि अगर रोज चार ब्लाउज सिले तो 40 रुपए मिलेंगे और घर की मदद भी होगी. उसने ज्यादा मेहनत की, दिन में 16 घंटे काम करके कल्पना ने पैसे जोड़े और घरवालों की मदद की.

इसी दौरान कल्पना ने देखा कि सिलाई और बुटीक के काम में काफी स्कोप है और उसने इसे एक बिजनेस के तौर पर समझने की कोशिश की. उसने दलितों को मिलने वाला 50,000 का सरकारी लोन लेकर एक सिलाई मशीन और कुछ अन्य सामान खरीदा और एक बुटीक शॉप खोल ली. दिन रात की मेहनत से बुटीक शॉप चल निकली तो कल्पना अपने परिवार वालों को भी पैसे भेजने लगी.

बचत के पैसों से कल्पना ने एक फर्नीचर स्टोर भी स्थापित किया जिससे उसे काफी अच्छा रिस्पॉन्स मिला. इसी के साथ उसने ब्यूटी पार्लर भी खोला और साथ रहने वाली लड़कियों को काम भी सिखाया. कल्पना ने दोबारा शादी की लेकिन पति का साथ लंबे समय तक नहीं मिल सका. दो बच्चों की जिम्मेदारी कल्पना पर छोड़ बीमारी से उनके पति की मौत हो गई.

कल्पना के संघर्ष और मेहनत को जानने वाले उसके मुरीद हो गए और मुम्बई में उन्हें पहचान मिलने लगी. इसी जान-पहचान के बल पर कल्पना को पता चला कि 17 साल से बंद पड़ी ‘कमानी ट्यूब्स’ को सुप्रीम कोर्ट ने उसके कामगारों से शुरू करने को कहा है. कम्पनी के कामगार कल्पना से मिले और कम्पनी को फिर से शुरू करने में मदद की अपील की. ये कम्पनी कई विवादों के कारण 1988 से बंद पड़ी थी.

कल्पना ने वर्करों के साथ मिलकर मेहनत और हौसले के बल पर 17 सालों से बंद पड़ी कम्पनी में जान फूंक दी. कल्पना ने जब कम्पनी संभाली तो कम्पनी के वर्करों को कई साल से सैलरी नहीं मिली थी, कम्पनी पर करोड़ों का सरकारी कर्जा था, कम्पनी की जमीन पर किराएदार कब्जा करके बैठे थे, मशीनों के कलपुर्जे या तो जंग खा चुके थे या चोरी हो चुके थे, मालिकाना और लीगल विवाद थे.

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कल्पना ने हिम्मत नहीं हारी और दिन रात मेहनत करके ये सभी विवाद सुलझाए और महाराष्ट्र के वाडा में नई जमीन पर फिर से सफलता की इबारत लिख डाली. कल्पना की मेहनत का कमाल है कि आज ‘कमानी ट्यूब्स’ करोड़ों का टर्नओवर दे रही है. कल्पना बताती हैं कि उन्हें ट्यूब बनाने के बारे में रत्ती भर की जानकारी नहीं थी और मैनेजमेंट उन्हें आता नहीं, लेकिन वर्करों के सहयोग और सीखने की ललक ने आज एक दिवालिया हो चुकी कम्पनी को सफल बना दिया.

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