एक शख़्स बेतहाशा भागा चला जा रहा था कि हुज़ूर के कुत्ते का इंतेक़ाल हो गया है और उसे ताज़ियत पेश करने में सबक़त हासिल करनी है किसी ने रास्ते में उसे बताया कि कुत्ते का नहीं ख़ुद हुज़ूर ही नहीं रहे, जैसे ही उसने यह सुना तो उसी तेज़ी से वापस लौट पड़ा, लोगों ने इसका सबब पूछा तो उसने कहा कि जब हुज़ूर ही नहीं रहे तो मैं दिखउंगा किसे कि मैं भी उनके ग़म में शरीक हूँ बिल्कुल कुछ ऐसा ही मंज़र आबिद सुहैल, डा. मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद, डा. नैयर मसूद और अब अनवर जलालपुरी के ताज़ियती जलसे में था जिसने यह साबित कर दिया कि अगर वारिसान साहिबे एक़तिदार हैं तो ताज़ियत देने वालों का एक हुजूम होगा, वरन् लोग अपने ड्राइंगरूम में बैठकर ताज़ियती जलसे की ख़बर तो अख़बारों में छपवा लेगें लेकिन ताज़ियती जलसे में शरीक होने की ज़हमत गवारा न करेंगें, लेकिन इस मुनाफ़िक़त के दौर में कुछ अच्छे लोग भी हैं जिनके दिल अभी मुनाफ़िक़त से पाक हैं, जिनमें इंसानीक़द्रें अभी बाक़ी हैं, जो वाक़ई उर्दू के आशिक़ हैं और उन लोगों की तरह एहसान फ़रामोश भी नहीं जिन्होंने इन जैसी तमाम मोहतरम हस्तियों को अपने डायस की ज़ीनत बनाकर छब्च्न्स्, उर्दू अकदमी जैसे इदारों से ख़ूब पैसे कमायें, उन्होंने भी ज़हमत नहीं की कि अगर वह ख़ुद उनके शयाने शान ताज़ियती जलसा नहीं कर सकते थे तो कम से कम मुनक़्िकद ताज़ियती जलसे का ही हिस्सा बन जायें। डा. मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद ने आपने आख़िरी वक़्त में अपने अलालत के दौर में भी किसी छोटे से छोटे जलसे में जाने से कभी ग़ुरेज़ नहीं किया लेकिन उन लोगों ने उनके जाने के बाद उन्हें कैसे याद किया सब ख़ूब जानते हैं। इस बेमुरव्वती और मुनाफ़िक़त के शुभाहत तो आबिद सुहैल, मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद और नैयर मसूद के तज़ियती जलसे में ही उजागर हो गये थे लेकिन तसदीक़ अनवर जलालपुरी के ताज़ियती जलसे में हुई जब गर्वनर, दिनेश शर्मा, रीता बहुगुणा के साथ मजमा भी उठा, बाहर गैलेरी में काफ़ी देर तक अपने क़ुरबतें और वफ़ादरियां साबित करता रहा और फिर उन्हीं के साथ चल बसा, ऐसा लगा कि यह सारे के सारे लोग अनवर जलालपुरी के ताज़ियती जलसे में नहीं बल्कि इन लोगों से सिर्फ़ मिलने आये थे इसलिये यह चले तो इनकी मौजूदगी का भी कोई मक़सद नहीं रहा और वह भी इन्हीं के साथ चल दिये। अच्छा ही हुआ वरन् मुनाफ़िक़ों की बड़ी जमाअत में उन लोगों की निशानदही हरगिज़ न हो पाती जो हर तरीक़े की मुनाफ़िक़त से पाक हैं और इन्हीं के दम से आज भी इंसानीक़द्रें बाक़ी हैं। भला हो छब्च्न्स्, उर्दू अकदमी जैसे इदारों का जिनसे पैसे कमाने के लिये ग़ालिब और इक़बाल जैसे लोगों को याद कर लिया जाता है वरन् इन सब का तो कोई नामलेवा भी न होता।