वक़ार रिज़वी की नहीं ये तमाम कोशिशों की मौत है

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शबाहत हुसैन विजेता

लखनऊ. वक़ार रिज़वी का जाना सिर्फ एक सहाफी का जाना नहीं है. यह उन कोशिशों की मौत है जो हालात पर नकेल कसने की कोशिश कर रही थीं. यह उस प्लेटफार्म का ढह जाना है जिस पर उन मसलों को बातचीत से सुलझाया जाना था जो सोसायटी के लिए नासूर बने हुए हैं. कहने को आज सिर्फ एक शख्स गया है मगर हकीकत यह है कि सब कुछ वीरान कर गया है.

वक़ार रिज़वी मेरे लिए भी पहले सिर्फ एक ऐसे सहाफी थे जो अपने अखबार की बेहतरी के लिए काम करते थे. जब हमने साथ काम किया तो उनकी तस्वीर साफ़ होती चली गई. वो लीक से हटकर चलने वाले शख्स थे. वो ऐसी कोशिशें करना चाहते थे जिससे आपसी नफरतें खत्म हों और लोग एक प्लेटफार्म पर आयें.

उनकी कोशिशों से कई बार लोग नाराज़ होते थे, लेकिन उन पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता था. सही को सही कहने में कोई भी नाराज़ हो जाए वो इस बात की परवाह नहीं करते थे.

2008 में जब मैं चौथी दृष्टि मैगजीन में था तब वक़ार भाई ने मुझे अवधनामा ज्वाइन करने को कहा था लेकिन मैं मैगजीन में ही काम करता रहा. 2011 जब मैं लोकमत में था तब वक़ार भाई ने राष्ट्रीय सहारा के मोहम्मद अली भाई से कहलवाया और मैं इनकार नहीं कर पाया. तब अवधनामा हिन्दी आठ पेज का ब्लैक एंड व्हाईट अखबार था.

वक़ार भाई ने कहा कि आज से आप इसके प्रधान सम्पादक हैं. आपका नाम आज से प्रिंट लाइन में जायेगा. इसे जैसे चाहें चलाएं. मैंने कहा कि इसकी शक्ल बदलनी पड़ेगी वो बोले जो करना हो करिये, जिसे रखना हो रखिये. अखबार आपके हवाले. कुछ ही दिन में अखबार 16 पेज के कलर अखबार में बदल गया. जितने स्टाफ को बुलाकर उनके सामने खड़ा किया उन्होंने यस कर लिया.

अखबार ज्वाइन कराते वक्त वक़ार भाई ने आगाह किया था कि यहां कुछ ऐसे लोग हैं जो अपनी सियासत से किसी को भी टिकने नहीं देते हैं, आप होशियार रहिएगा. और वाकई कुछ ही महीनों में सियासत शुरू हो गई. सियासत करने वाला भी वक़ार भाई का मुंह लगा था. इसी बीच उत्कर्ष सिन्हा जी अवध प्रांत लेकर आये और मैं अवधनामा से अवध प्रांत में चला गया.

वक़ार भाई ने कहा की आपको अखबार नहीं छोड़ना चाहिए था. इसी बीच किसी की शादी का कार्ड आया तो वक़ार भाई का फोन आया कि शादी का कार्ड आया है, आपको और मुझे दोनों को ही जाना है. मैं आपके दफ्तर आऊंगा और हम साथ में चलेंगे. रास्ते में वक़ार भाई ने फिर पूछा कि अवधनामा क्यों छोड़ा. मैंने कहा कि मैं सियासत नहीं कर सकता. वो बोले कि जब आपको अख्तियार दिए थे तो आप ऐसे आदमी को निकाल देते.

अवध प्रांत में भी अखबार निकलने के तीन चार महीने बाद ही ऐसे हालात बने कि एक शाम उत्कर्ष भाई से कहा कि यहाँ काम नहीं हो पाएगा, मैं निकल रहा हूँ. उत्कर्ष जी अवध प्रांत के सम्पादक थे. वो बोले कि आप चले जायेंगे तो फिर मैं क्यों रहूँगा. उन्होंने कहा कि बैठिये काफी पीजिये, फिर बताते हैं. काफी पीने के बाद हम और उत्कर्ष भाई साथ-साथ बाहर निकले. उसी दिन उन्होंने भी नौकरी छोड़ दी.

कुछ दिन बाद वक़ार भाई को पता चला कि बेरोजगार हो गया हूँ तो नाराजगी के साथ फोन मिलाकर बोले कि जब आपका अपना अखबार है तो घर में कैसे बैठे हैं. मैंने कहा कि अब अकेला नहीं हूँ, उत्कर्ष भाई भी हैं. वो बोले कि प्राब्लम क्या है. उत्कर्ष भाई मेरे कमरे में बैठेंगे. आपकी सीट खाली ही पड़ी है. इसके बाद उत्कर्ष भाई अवधनामा के प्रधान सम्पादक बन गए. और हमने फिर काम शुरू कर दिया.

वक़ार भाई अखबार का काम हमें सौंपकर खुद को खाली रखना चाहते थे क्योंकि वह अखबार की दुनिया से बाहर अपने हाथ-पाँव पसारने लगे थे. उन्होंने शिया-सुन्नी धर्मगुरुओं की सियासत में इंटरेस्ट लेना शुरू कर दिया था. वो लगातार कोशिश में लगे थे कि दोनों एक प्लेटफार्म पर आ जाएं. इसके लिए वो सेमिनार करने लगे थे. उनसे मुलाकातें करने लगे थे. उनकी गल्तियों पर मुंह पर लताड़ने लगे थे. सेमिनार में उलेमा के आडियो के वह हिस्से सुनाते थे जो उन्हें नहीं बोलना चाहिए था. फिर पूछते थे कि कोई है जो एफआईआर कराये. धीरे-धीरे माहौल बनने लगा था. साथ-साथ बैठकर, आपस में बातचीत कर शिया-सुन्नी धर्मगुरुओं के बीच रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलने भी लगी थी. वह इस कोशिश में थे कि मुसलमान एक प्लेटफार्म पर आ जाएं तो हिन्दू-मुसलमान को जोड़ने की फिर कोशिश की जाए. सोशल मीडिया ने गंगा-जमुनी तहजीब को जो नुक्सान पहुंचाया है उसकी रिपेयर करना ही उनका मकसद था.

वक़ार रिज़वी ने मोहर्रम के दौर में अपने नरही वाले घर में जो मजलिसें कीं उनका मकसद दूसरे धर्मों को कर्बला के बारे में बताना था. मजलिस में वो कभी सुनीता झिंगरन से नौहा पढ़वाते थे तो कभी हिमांशु वाजपेयी से मजलिस. डॉ. असद अब्बास ने भी उनके यहाँ कई मजलिसें पढीं. मोहर्रम पर बोलने के डॉ. दाउजी गुप्ता और डॉ. दिनेश शर्मा उनके यहाँ आते थे तो लोगों को तमाम नई-नई बातें पता चलती थीं.

वक़ार रिज़वी के काम करने की रफ्तार बहुत तेज़ थी. वह जिसे कोई काम सौंपते थे तो उस पर पूरा भरोसा करते थे. मीडिया में सीनियर लोगों की नौकरी जाने पर उनके लिए घर चलाना ज्यादा मुश्किल होता है. ऐसे लोगों को वह अपने अखबार से जोड़ने की पहल करते थे.

अवधनामा छोड़े कई साल हो गए मगर उनके साथ जो रिश्ते बने वो ताजिंदगी बने रहे. फोन पर उन्होंने कभी हलो नहीं बोला, हमेशा जी शबाहत भाई ही सुनाई देता था. यह आवाज़ तो कानों में हमेशा गूंजती रहेगी. कुछ महीने पहले वह जुबिली पोस्ट के दफ्तर आये और उत्कर्ष भाई से कहा कि अवधनामा की वेबसाईट आपके हवाले करने आया हूँ. इसे भी साथ में चलाइये.

अवधनामा की वेबसाईट हमारे पास है, उसमें एक अच्छी टीम काम कर रही है मगर वक़ार भाई अचानक मुट्ठी में रेत की तरह फिसल गए हैं. कुछ दिन पहले उबैद उल्लाह नासिर साहब की किताब के विमोचन का इन्वीटेशन आया. पता लिखा था उर्दू मीडिया सेंटर और बुलाने वाले का नाम था वक़ार रिज़वी. तय तारीख को मैं वहां पहुंचा तो सन्नाटा था. वक़ार भाई को फोन किया तो आवाज़ आयी जी शबाहत भाई. मैंने कहा कि आपके दरवाज़े पर खड़ा हूँ. आपके यहाँ उबैद भाई की किताब का विमोचन कैंसिल हो गया क्या. वो बोले वो तो 2018 में हुआ था. किसी ने पुराना कार्ड डाल दिया, मेरे पास कई फोन आये. खैर आप रुकिए. मैं दो मिनट में आ रहा हूँ. चाय पीकर जाइएगा. मैंने पूछा कि आप हैं कहाँ तो बोले कि ऑफिस में बैठा हूँ. मैंने कहा कि आप वहीं रहिये मैं आ रहा हूँ.

वक़ार भाई ने फ़ौरन चाय और नमकपारे मंगवाए. वेबसाईट के बारे में पूछा. अवधनामा के दफ्तर में फरहीन काम कर रही थीं, बोले कि यह फरहीन हैं. वेबसाईट में काम करती हैं. बोले कि दो-चार दिन में आता हूँ आपके दफ्तर. वह वादा झूठा साबित हो गया. दो-चार दिन बाद मैंने फोन किया था, बोले कि आ जाऊं क्या? उनसे कहा कि वेबसाईट डिजाइनर को भी बुला लीजिये, हम लोग आपके दफ्तर ही आते हैं.

डिजाइनर से बात नहीं हो पाई, उन्हें शादी में जाना था, शादी में उन्हें गिफ्ट में कोरोना मिल गया. एक महीना मौत से जद्दोजहद के बाद वो हार गए. कल शकील रिजवी ने कहा था कि ऐसा आदमी इतनी आसानी से जा नहीं सकता. उनकी कोशिशें बेकार हो जायेंगी तो बड़ा नुक्सान होगा. आप देखिएगा कि मोजिज़ा होगा. वक़ार भाई फिर काम पर लौटेंगे.

मोजिज़ा नहीं हुआ. सहरी के वक्त जब लोग अलार्म लगाकर सहरी खाने उठते हैं वक़ार भाई अपने आख़री सफ़र पर निकल गए.

वक़ार भाई न यह जाने की उम्र थी न वक्त. आपसे बहुत से लोगों को तमाम उम्मीदें थीं. आपका घर, आपके बीवी बच्चे, आपके भाई-बहन, आपका स्टाफ, आपके दोस्त और आपकी सोसायटी सभी को आपकी बहुत ज़रूरत थी. वक़ार भाई, जिस तरह से आप गए हैं ना उसे धोखा कहते हैं धोखा. यह धोखा हमें पूरी ज़िन्दगी परेशान करेगा मगर हम सब की यही दुआ है कि आप सोसायटी के लिए जो कोशिशें कर रहे थे वो कामयाब हो जाएं. आपको जन्नत में वो मुकाम हासिल हो जो आप जैसे इंसान को मिलना चाहिए.

 

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