रजनीश कुमार शुक्ल
ममता बनर्जी की ‘विपक्षी एकजुटता रैली’ में जिस प्रकार विपक्षी लोगों की एकजुटता दिखी उससे यह सोचने की बात है कि लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी को मात देने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की सारी व्यवस्थाएं हो सकती हैं क्योंकि यह वर्चस्व की लड़ाई दिख रही है जहाँ एक ओर प्रधानमंत्री और दूसरी ओर सारी विपक्षी पार्टियां हैं। लेकिन विपक्ष की इस दोस्ती में सबसे बड़े दल के हाईकमान कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी का न आना और सिर्फ पत्र लिखकर ही समर्थन करना कुछ और ही संकेत करते हैं क्योंकि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के लिए उतावले हैं लेकिन ममता बनर्जी साफ तौर पर पहले ही मना कर चुकी थीं कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होंगे। ममता बनर्जी कुछ महीने पहले हुई राहुल की रैली में नहीं आयीं थीं और तीसरे मोर्चे को बनाने के लिए चन्द्रशेखर राव व ममता के बीच चर्चा भी हुई थी। चन्द्रशेखर राव ने अरविंद केजरीवाल से भी मुलाकात की थी और अखिलेश यादव और मायावती से भी मुलाकात करने वाले थे।
ममता ने अक्टूबर 2018 में राहुल पर निशाना साधते हुए कहा था कि एक ही पार्टी का आदमी ही प्रधानमंत्री क्यों बन सकता है। चुनाव के बाद ही सभी पार्टियाँ मिलकर यह तय करेंगी कि कौन बनेगा प्रधानमंत्री। देखा जाये तो यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री व बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती व समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का गठबंधन इसलिए हुआ है कि अबकी बार यूपी का प्रधानमंत्री होगा। सभी क्षेत्रीय पार्टियां अपने लीडर को ही प्रधानमंत्री उम्मीदवार मानतीं हैं अब अगर सभी एक साथ चुनाव लड़ते हैं तो उनके बीच प्रधानमंत्री को लेकर ही रार होनी शुरू हो जायेगी।
जिस प्रकार ‘विपक्षी एकजुटता रैली’ में पूर्व पीएम देवेगौड़ा, तीन मुख्यमंत्री- चंद्रबाबू नायडू, एचडी कुमारस्वामी और अरविंद केजरीवाल, छ: पूर्व मुख्यमंत्री- अखिलेश यादव, फारुख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, बाबूलाल मरांडी, मायावती के प्रतिनिधि सतीश मिश्रा और गेगांग अपांग और पाँच पूर्व केंद्रीय मंत्री- शरद यादव, शरद पवार, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और राम जेठमलानी और भाजपा के बागी सांसद शत्रुघ्न सिन्हा शामिल हुए और सभी नेताओं ने मोदी सरकार को हटाने की ठानी है उसका हश्र क्या होगा यह तो चुनाव परिणाम ही बतायेगा। सभी जानते हैं कि यदि एक साथ चुनाव नहीं लड़े तो हार सकते हैं और भाजपा सभी छोटी पार्टियों को तोड़ कर खत्म कर देगी जिससे सभी पार्टियों का भविष्य खत्म हो जायेगा। सभी ने मोदी को लेकर लोकतंत्र का खतरा बताया। किसी ने प्रधानमंत्री पर तानाशाही करने का भी आरोप लगाया। लेकिन देखा जाये तो ममता को छोड़ कोई भी प्रधानमंत्री बनने के लिए साफ छवि नहीं रखता है क्योंकि ज्यादातर पूर्व मुख्यमंत्रियों पर कोई न कोई भ्रष्टाचार के आरोप हैं या उन पर सीबीआई की कार्रवाई हुई है या होने वाली है।
पूर्व पीएम देवगौड़ा को भी कांग्रेस एक बार झटका दे चुकी है क्योंकि जब पीवी नरसिम्हा राव की अध्यक्षता वाली कांग्रेस पार्टी 1996 के चुनाव में पर्याप्त सीटें नहीं जीत पायी थी तो गैर कांगेस और गैर भाजपा क्षेत्रीय पार्टियों का समूह कांग्रेस को समर्थन लेकर सरकार बनाने के लिए बनाया गया था और देवगौड़ा को अप्रत्याशित रूप से सरकार के नेतृत्व करने के लिए चुना गया था। 1 जून 1996 को वह भारत के 11वें प्रधानमंत्री बने और कांग्रेस के धोखे के कारण उन्हें 11 अप्रैल 1997 को इस्तीफा देना पड़ा था। अब फिर वैसा ही माहौल नज़र आ रहा है यदि सभी मिलकर सरकार बनाते हैं तो पहले प्रधानमंत्री के लिए और सरकार चलाने के लिए आये दिन बवाल होता नज़र आयेगा। गठबंधन सरकार चलाने में नाकाम साबित होगा क्योंकि सभी राज्यों की छोटी पार्टियां आये दिन किसी ना किसी मांग को लेकर धमकियां देती रहेंगी जिससे सरकारी धन की उगाही होती रहेगी और अंत में इस्तीफे की नौबत आयेगी और फिर से चुनाव कराने की बारी आ जायेगी।
छोटी पार्टियों को देखें तो कर्नाटक में जेडीएस व कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनाई वहाँ मंत्रिमंडल को लेकर आये दिन नाराज विधायक मोर्चा खोलते रहते हैं और वहाँ सरकार गिरने का संकट हमेशा बना ही रहता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार खत्म करने की बात करती थी लेकिन वहाँ भी विधायक व मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले सामने आते रहते हैं। वहीं तमिलनाडू में जब तक जयललिता थीं तब तक वहाँ के हाल ठीक थे लेकिन उनके जाने के बाद पार्टी में दो फाड़ हो गया और बाद में एक दूसरे पर कई शर्तें लगाने के बाद यह लोग एक हुए। इन सभी छोटी पार्टियों की घटनाओं से साफ होता है कि महागंठबंधन तो हो सकता है लेकिन उसका लम्बे समय तक चलना सम्भव नहीं हो सकता। भाजपा के बागी सांसद शत्रुघ्न सिन्हा को मंत्री न बनने का मलाल है क्योंकि उनसे जूनियर रहीं स्मृति ईरानी को मंत्रीमंडल में शामिल किया गया लेकिन उनको नहीं।
कोलकाता में एक तरफ ममता बनर्जी की रैली हो रही थी और दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री व बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने यह ऐलान किया कि वह सभी राज्यों में छोटे दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगी। जिससे यह साफ ज़ाहिर होता है कि वह ज्यादा से ज्यादा सीटें निकालना चाहतीं हैं और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहतीं हैं। राहुल भी इसी पेंच में फंसे हुए हैं क्योंकि वह तीन राज्यों के चुनाव जीतने के बाद अति-उत्साह में हैं और विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी चाह रहे हैं। लेकिन प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश रखने में राहुल, ममता, मायावती, अखिलेश यादव, चन्द्रशेखर राव, शरद पवार भी हैं। इससे यही ज़ाहिर होता है कि इनका महागठबंधन तो हो सकता है लेकिन बाद में प्रधानमंत्री बनने के लिए हायतौबा होगी। यदि ममता बनर्जी महागठबंधन की जगह थर्ड फ्रंट बनातीं हैं तो ज्यादा से ज्यादा सीटें भी जीत सकती हैं और प्रधानमंत्री पद की दावेदारी भी उन्हीं की होगी।
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