पीड़ित की सुनवाई के बगैर सरकार वापस नहीं ले सकेगी केस

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नई दिल्ली। दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की जगह प्रस्तावित नया कानून भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता लागू होने को तैयार है। यह संसद के दोनों सदनों से पारित हो चुका है। इस प्रस्तावित कानून में कई खूबियां हैं। इसे विशेषकर अपराध के पीड़ित को ध्यान में रख कर बनाया गया है। नए कानून में आपराधिक मुकदमा वापस लेने के सरकार के एकतरफा अधिकार पर अंकुश लगाया गया है।

नया कानून कहता है कि मुकदमा वापस लेने की अर्जी मंजूर करने से पहले पीड़ित को पक्ष रखने और सुनवाई का मौका दिया जाएगा। सीआरपीसी में ऐसा कोई प्रविधान नहीं है। इससे साफ है कि नए कानून में राज्य सरकार के पास मुकदमा वापस लेने का एकतरफा अधिकार नहीं रहेगा। इसमें पीड़ित को भी सुना जाएगा। नया कानून लागू होने के बाद राजनीति से प्रेरित होकर मुकदमे वापस लेने की प्रवृत्ति पर भी रोक लगेगी।

कई बार सरकारें सत्ता में आने के बाद इस तरह के कदम उठाती हैं। 2013 में उत्तर प्रदेश में सपा सरकार का बम विस्फोट के आरोपित आतंकियों के मुकदमे वापस लेने के प्रयास का मामला उल्लेखनीय है। हालांकि कोर्ट ने इजाजत नहीं दी थी।

अपराध किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं बल्कि राज्य के खिलाफ हुआ माना जाता है। इसलिए किसी भी अपराध में मुकदमा सरकार लड़ती है। ज्यादातर मामलों में राज्य सरकार अभियोजक होती है, क्योंकि कानून-व्यवस्था, पुलिस राज्य का विषय है। कुछ मामलों में केंद्रीय एजेंसियां जांच करती हैं, तो अभियोजक केंद्रीय एजेंसी जैसे सीबीआइ आदि होती है।

कानून में प्रविधान है कि सरकारी वकील या लोक अभियोजक फैसला आने से पहले कभी भी मुकदमा वापस लेने के लिए अर्जी दाखिल कर सकता है। उसकी कुछ शर्तें रखी गई हैं और कोर्ट की इजाजत से केस वापस लिया जा सकता है। अभी लागू सीआरपीसी की धारा 321 में लोक अभियोजक द्वारा मुकदमा वापस लेने का प्रविधान है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 में भी ऐसा ही प्रविधान है। नए कानून में बस एक अंतर है कि इसमें पीड़ित को विरोध करने और अपनी बात रखने का अधिकार दिया गया है। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 अन्य शर्तों के साथ एक शर्त यह भी लगाती है कि कोई भी अदालत पीड़ित को पक्ष रखने का मौका दिए बगैर मुकदमा वापस लेने की अर्जी स्वीकार नहीं करेगी।

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