विश्व पर्यावरण दिवस विशेष

0
107

 

अवधनामा संवाददाता

अंधाधुंध भोग के स्थान पर यूटर्न लेकर सादा जीवन और उच्च विचार के ट्रेक पर चलना होगा
 
ललितपुर। विश्व पर्यावरण दिवस पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो. भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि जरा वटवृक्ष का मौन व्याख्यान-जो अमृत से भीगा हुआ है, उसको सुनने के लिए आपके दो मिनट भी बहुत हैं। ज्ञान और प्रेम के अवतार आदि शंकराचार्य ने बहुत पहले इस महान उपलब्धि को सकल संसार के लिए आठवीं -नौवीं शताब्दी में इस प्रकार अत्यंत सरल सुबोध संस्कृत के स्त्रोत में कहा था चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धा: शिष्या गुरुर्युवा। गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशया:॥ अर्थात इस वट वृक्ष के नीचे युवा गुरू और वृद्ध शिष्य आसीन हैं। मौन गुरु का शास्त्र व्याख्यान और उसी से शिष्यों की शंकाएं नष्ट हो जा रहीं हैं। वस्तुत: ऐसे मौन गुरुओं में एक वट वृक्ष भी है। वह ना जाने कब से मौन होते हुए भी बाहर और भीतर का ज्ञान हम सबको मुफ्त में बांट रहा है। आचार्यश्री ने वट वृक्ष की ही उपमा क्यों दी है ? स्पष्ट है कि वह एकमात्र ऐसा वृक्ष गुरु है जिसकी शाखाएं हवा में झूलते हुए हम सभी को बाहरी ज्ञान का संदेश दे रहीं हैं और दूसरी ओर जमीन के अंदर फैली हुई बंद शाखाओं से हमें गूढ़ ज्ञान देकर हमारे सारे संशयों को क्षण में दूर कर देतीं हैं। इसीलिए प्राचीन आरण्यक संस्कृति के विकास में इसी वृक्ष के नीचे खुली हवा में गुरुकुल चलाए गए। भगवान बुद्ध को गयाजी में बोधिवृक्ष (पीपल) के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ और वहां से पैदल चलकर वे काशी में आए और उन्होंने सारनाथ में कहा कि इस संसार में दु:ख का परिणाम सब अपनी नंगी आंखों से देख रहे हैं तो उसे दूर करने के कारण -दु:ख के पेड़ की सतह तक जाकर उसके निदान की खोज क्यों नहीं कर लेते? पर्यावरण  संरक्षण के लिए पेड़ बोलते नहीं वे कोपलों से बुलवाते हैं, पत्ते सूखे पत्ते जब तलाक देते हैं तो अपने आप में हंस लेते हैं। पेड़ झगड़ते नहीं है शांति का वरण करते हैं, खून चूस जोंक जब आवे तो वे छाया ही बरसाते हैं। पेड़ सोते नहीं हैं, सिर उठाकर देखते रहते हैं, पैरों से अंधकार को पीकर आंखों में कांति का प्रसार करते हैं। लगभग 150 वर्ष पहले वंदे मातरम गीत के रचनाकार बंकिम चंद्र चटर्जी ने आवाहन किया था कि सुजल, विमल सुफलाशय के बर्तन में सुफलाम, शस्य श्यामलाम मातरम बन्दे कहा था, पर इतने सालों बाद इस अपान जल में फल है ही नहीं, जनता अभाव के कारण सूख रही है। मलयज शीतलाम की शीतल मंद सुगंध की जगह वायुमंडल में जहरीली हवा घुल चुकी है। पानी,  पानी,  पानी चारों ओर पानी ही पानी तो है लेकिन क्या एक बूंद भी पीने लायक है? जबकि मोती मानुष और चून में यदि पानी न हो और उन्हें स्वाभिमान पूर्वक सिर उठाकर जीने के लिए तो पानी तो पानीदार बनना ही पड़ेगा। पिछले समय पर्यावरण प्रदूषण के खतरे को भांपते हुए हाईकोर्ट ने सरकारों को सावधान किया था कि कब तक निर्दोष भोली-भाली जनता गैस चेंबर में अपना दम घोंटती रहेगी ? इससे तो अच्छा है कि आप एक ही बार में झटके से बम फोड़ दें। धरती माता सबका पेट भर सकती है परन्तु लोभ लालच का नहीं। किन्तु लगता है मनुष्य की लिप्सा जीवन को खाकर ही शांत होगी।
Also read

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here