राज्यपाल अपनी सीमा समझे

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एस. एन. वर्मा

संविधान में सभी बाते स्पष्ट है। प्रजातन्त्र में राज्यपाल मुख्यमंत्री उच्च पदो पर बैठाये गये मनोनीत पदाधिकारी
संविधान में सभी कुछ स्पष्ट है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विधायक और लोकसभा सदस्य उच्च पदो पर बैठाये गये माननीय सभी के अधिकार और कर्त्तव्यों के बारे में सन्दर्भ है। आजकल राज्यपाल और राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच खीचतान की खबरे आम होती जा रही है। खासतौर से केन्द्रीय सरकार के पार्टी की सरकार जिन राज्यों में नहीं है वहां राज्यपाल और मुख्यमत्री के बीच विधेयको को लेकर टकराव आम बात है। राज्यपाल विरोधी पार्टी के मुख्यमंत्रियों द्वारा कोई विधेयक पारित होेने के लिये राज्यपाल के पास भेजा जाता है वे दबाये रखते है। यह भी देखने में आ रहा है कि विधानसभा सत्र बुलाने के लिये भी राज्यपाल का मुंह देखना पड़ रह है। चूकि राज्यपाल आमतौर पर केन्द्र सरकार के पार्टी का या उसके द्वारा मनोनित आदमी होता है या रिटायर्ड नौकरशाह होता है इसलिये केन्द्र सरकार की तरफदारी में विधेयकों को दबाये रखता है। जबकि विघेयकों को रोकने और पुनः विचार के लिये लौटाने की सीमा होती है। राज्यपाल विधेयक निरस्त नही कर सकता है।
राज्यपाल द्वारा विधेयक रोके रहने को लेकर एक परिवाद सुप्रीम कोर्ट के सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट मुख्य न्यायधीश नें इस पर चिन्ता जताते हुये निर्देश दिया है कि राज्यपाल थोड़ा आत्मावलोकन करें मामले शीर्ष अदालत में आने के पहले ही कारवाई की जानी चाहिये। मौजूदा विवाद भी पंजाब में सत्तासीन आम आदमी पार्टी सरकार का है। राज्य सरकारो और राज्यपालों के बीच टकराव की बात नयी नहीं है। पहले से ही हो रहा है। पर मर्यादित ढंग से निपटता भी रहा है। कभी कभी मर्यादा टूट गई है और राज्य सरकार को इस या उस बहाने से बर्खास्त कर देने की भी नौबत आई है। कभी गवर्नर के बर्ताव से विशुब्ध विधेयक राष्ट्रपति और केन्द्र सरकार के पास अपना विरोध लेकर पहुंचे। कभी मुख्यमंत्री को बहुमत साबित करने के लिये निर्देशित किया तो कभी विधानसभा भंग कर दिया गया है। विधानसभा सत्र अनिश्चित काल तक रोक भी दिया गया है। दिल्ली राज्य में आरूढ आप पार्टी की सरकार कई मुशकिलों से गुजर रही है। वहां लेफ्टीनेन्ट गवर्नर पदारूढ़ है। प्रजातन्त्र की सेहत के लिये यह सब वाजिब नहीं है। पर आजकल हो गई आवाज सस्ती और मंहगा शोर है। अगर राज्यपाल या उपराज्यपाल केन्द्र में आरूद पार्टी का नेता रहा हो तो वहां के सरकार को विघेयको को पारित कराने के लिये काफी कसरत करनी पड़ती है।
दिल्ली और पंजाब में आरूढ़ आप पार्टी की सरकारों को विधानसभा का सत्र बुलाने के लिये भी शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है। पंजाब सरकार नें विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को मंजूरी देने में अनावश्यक देरी लगाने के लिये वहां के राज्यपाल बी.एल.पुरोहित पर आरोप लगाते हुये शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया है। शीर्ष अदालत ने इस मामले में सख्त रूख अपनाया है। साफ साफ कहा है कि विधेयकों को रोकने की सीमा होती है। लेकिन दुखद है कि राज्य सरकारों को विधानसभा का सत्र बुलाने के लिये भी शीर्ष अदालत में आने के लिये मजबूर किया जाता है। राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच इतनी कडुआहट नहीं होनी चाहिये कि बेमतलब की छोटी छोटी बातो को लेकर अदालत आना पड़े। शीर्ष अदालत इस विषय को लेकर बहुत सख्ती का रूख ठीक ही अपनाया है। विवादों के निपाटने के लिये वो भी अनावश्यक विवादों को लेकर अदालत का समय नष्ट नहीं करना चाहिये। अदालतों के पास यो ही मुकदमें के ढेर लगे हुये है। ऐसे में इस ओर भारी बनाना न तो वाजिब है न देश सेवा। आजकल अपने नाम के लिये चर्चा में आने के लिये अदालतों का बोझ बढ़ाने में लगे हुये है बेकार की अपील दायर करते रहते है।
शीर्ष अदालत ने राज्यपालो को स्पष्ट सही और संख्या टिप्पणी देते हुये समझाया हैं कि राज्यपाल अपनी सीमा समझे वे चुने हुये प्रतिनिधि नही हैं। इतने सालो से मतदान करते करते आम आदमी भी प्रजतन्त्र की पद्धतियों से वाकिफ हो गया है कि प्रजातन्त्र में चुने हुये प्रतिनिधि का रूतबा और कार्यक्षेत्र तथा अधिकार पद के अनुसार सर्वोपरि होता है। यही प्रजातन्त्र का टानिक है। उम्मीद है राज्यपाल अब आत्मामन्थन कर सही दिशा निर्धारित करेगें।

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