Sunday, April 28, 2024
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ये मजलिसों न होती तो ?

(6 मोहर्रम) कर्बला इंसानसाज़ी की दर्सगाह
Waqar Rizvi
यह मजलिसें न होती तो शायद हम उन तमाम अहम बातों से ग़ाफ़िल होते जो हमें यहां सीखने और समझने को मिलती है क्योंकि जब जब कर्बला का ज़िक्र होता तो इंसानी रिश्तों की अहमियत भी बयान होती है जब इंसानी रिश्तों का ज़िक्र होता है तो हम मजबूर हैं कि अहले बैत के दर पर जायें क्योंकि रिश्तों की पासदारी की जो मिसाल इस दर पर मिलती है और कहीं नहीं मिलती। कोई दर्सगाह नहीं जहां हमें हर तरह का इल्म और सीख मिल सके सिवाये दरे अहलेबैत के, क्योंकि यहां अल्लाह की किताब क़ुरआन की नसीहत भी है और अल्लाह के नबी मोहम्मद का किरदार भी। इन्हीं मजालिस में जब रसूल और क़ुरआन का ज़िक्र होता है तो इनको भेजने वाले उस ला दहू शरीक का ज़िक्र न हो यह कैसे मुमकिन है, फिर तौहीद का भी पता चलता है, वहदानियत पर भी यक़ीन बढ़ता है और नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात और वह तमाम शरई अहकाम जो हम पर फ़र्ज़ किये गये हैं उनको अपनी ज़िंदगी में पाबन्दीय वक़्त के साथ बजा लाने का जज़्बा भी पैदा होता है। जब इन तमाम शरई अमल का ज़िक्र होता तो इसके सिले का भी ज़िक्र ज़रूरी है क्योंकि इंसानी फ़ितरत का तक़ाज़ा है कि वह कोई अमल बिना जज़ा के नहीं करता, जब जज़ा का ज़िक्र होगा तो सज़ा का ज़िक्र भी लाज़मी है, तो फिर क़यामत का भी ज़िक्र होगा, अदल और इंसाफ़ का भी ज़िक्र होगा, एक दूसरे के हुक़ूक क्या हैं इसका भी ज़िक्र होगा, जब इंसानी रिश्तो का ज़िक्र होगा तो हमें यह ज़रूर बताया जायेगा कि एक औलाद की परवरिश कैसे की जाये, एक औलाद अपने मां बाप के साथ कैसे पेश आये, भाई भाई के एक दूसरे पर क्या हुक़ूक हैं, बहन का जायदाद में हिस्सा क्या है और उसे देना हम पर फ़र्ज़ है, शौहर की बीवी के लिये बीवी की शौहर के लिये क्या ज़िम्मेदारियां हैं, एक उस्ताद अपने शागिर्द की तरबियत कैसे करे और एक शागिर्द अपने उस्ताद की अज़मत को कैसे बरक़रार रखे। इन्हीं मजलिसों में जब इसका ज़िक्र होता है कि पड़ोसियों के हमपर हुक़ूक क्या हैं कहीं ऐसा तो नहीं हम रौग़न ग़िज़ायें नोश फ़रमा रहें हैं और चारों तरफ़ 40-40 घर में हमारा कोई पड़ोसी फ़ाक़ा कर रहा है।
अगर अदबी लोग मजलिसें ख़िताब करते हैं तो इन्हीं मजलिसों से हमें अदब भी मिलता है यहीं से हम ग़ालिब को जानते हैं, हमनें इक़बाल, मीर, अनीस और दबीर को यहीं से जाना, यही से हमने इफ़तेक़ार आरिफ़, इरफ़ान सिददीक़ी, कृष्ण बिहारी नूर, माथुर लखनवी, को जाना और यहीं से आज हम तारिक़ क़मर, संजय मिश्रा शौक़, सुनीता झिंगरन, हिमांशु बाजपेई, मनीष शुक्ला जैसे लोगों को भी जान रहे हैं।
इन्हीं मजालिसों में जब बअमल ज़ाकिरीन कर्बला का ज़िक्र करते हैं तो कर्बला हमें एक एक अलामत दिखायी देती है ज़ुल्म और जब्र के ख़िलाफ़ अपना एहतिजाज रक़म करने की
अपने मोआशरे में तब्दीली लाने की, सदाक़त और इंसाफ़ की हिफ़ाज़त की।
अगर ज़ाकिरीन बग़ैर किसी तान व तन्ज़ के अपनी मजालिस को ज़िक्रे करर्बला और अहले बैत के ज़िक्र से मुनव्वर करते हैं तो सुनने वालों के दिमाग़ भी रौशन हो जाते हैं वरना वह ख़तीब जिनके ज़िक्र से अपनी मजलिसों को ज़ीनत देते हैं वह उन जैसे ही बन जाते हैं जिनका वह ज़िक्र करते हैं कर्बला के मैदान में इतनी अज़ीम क़ुरबानिया आपके ख़िताबत के जौहर दिखलाने  के लिये नहीं बल्कि एक अज़ीम मक़सद के लिये दी गयीं उस मक़सद को यूं ज़ाया न होने दें उसे बाक़ी रखें। ऐसे बनें कि मौला भी कहें यह हमारा शिया है।
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