हार को स्वीकार न करने का बहना है ईवीएम की गड़बड़ी-रविश अहमद

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इन्सान की फितरत में शुमार करता है अपनी असफलता का ठीकरा दूसरे के सर फोड़ना। कुछ लोग तो असफलता से इतना ज़बरदस्त घबरा जाते हैं कि बौखलाहट में अनर्गल बयानबाज़ी शुरू कर देते हैं जबकि यह उनकी पूर्व में की गयी गलतियों का परिणाम होता है। बेशक किस्मत की अहमियत होती है लेकिन बोलने के समय न बोलना और संघर्ष के समय आराम राजनीति की नीति के विरूद्ध है। बस यही कुछ हुआ उत्तर प्रदेश के चुनावों में। लेकिन तमाम धुरंधर राजनीतिक दलों का सूपड़ा मात्र किसी लहर का परिणाम नही बल्कि हारने वाले दलों की गलतियों और जीतने वाले दल की दिन रात की जिद्दी मेहनत का परिणाम है, अब अगर इसका ठीकरा ईवीएम के सिर फोड़ा जाये तो यह मात्र हास्यास्पद से अधिक कुछ नही। सांप गुज़रने पर लकीर पीटने की आदत को कथित सैक्युलर दलों को छोड़ना होगा।
क्या आप एक ऐसे मुल्क में इस गड़बड़ी को स्वीकार कर लेंगे जहां हमारे देश की खुफिया जानकारी पड़ौसी मुल्कों में पंहुच जाती हो, जहां स्वयं राष्ट्रवाद का चोला ओढ़े लोग ही आईएसआई के लिये काम करने के आरोप में पकड़े गये हों, जहां पीएमओ तक की सूचनाएं लीक हो सकती हों, ऐसे मुल्क में संभव ही नही कि ईवीएम जैसी ख़तरनाक साज़िश की जाये और किसी को कानोंकान ख़बर तक न लगे।ऐसा कहना हरगिज़ बेमानी है जब आप दूसरे राज्यों के नतीजे भी सामने देख रहे हों जहां पांच में से तीन राज्यों में केन्द्रीय सत्तारूढ़ भाजपा गठबन्धन बहुमत की सीटें जुटाने में नाकामयाब रही हो जबकि कथित तौर पर गड़बड़ी वहां की ईवीएम में भी हो सकती थी।
दरअसल हारे हुए तमाम राजनीतिक दलों को वास्तविक जनादेश को स्वीकार करना चाहिये।
अब अगर बात जनादेश और जनाधार की करें तो आंकड़ों में ऐसा कोई वर्ग नही जिसने भाजपा को यूपी में वोट न दिया हो यहां तक कि भाजपा का डर दिखाकर मुसलमानों के वोटों को हासिल करने वाले दलों को मुस्लिम वर्ग ने भी भाजपा को वोट करके अपनी आंशिक ही सही किन्तु सहभागिता कर करारा जवाब देने का प्रयास किया है। मुसलमानों द्वारा भाजपा को वोट दिये जाने का कोई अन्य अर्थ निकालने से पहले बसपा को अपने बेस वोट दलित और सपा को अपने यादव जनादेश को परखना आवश्यक है कि क्यों वें छिटक कर भाजपा की ओर चले गये। जहां तक मुस्लिम मतों का सवाल है यह हमेशा सभी दलों को वोट करता आया है किन्तु विचार बसपा सुप्रीमो मायावती को दलितो के विषय में करना होगा। जबसे मायावती ने अपने मूल नारे को छोड़ सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लेना शुरू किया तभी से वोट खिसकना शुरू हुआ, वहीं अपने परिवार से अलग-थलग होना अखिलेश यादव को भारी पड़ा। सत्य को स्वीकार करना ही चाहिये और वह केवल यही है कि विकास के मामले में अखिलेश यादव ने अभूतपूर्व काम किया किन्तु जनता अहंकार को नकारती है चाहे वह मायावती का 2012 में नकारा हो या 2017 में अति उत्साहित अखिलेश यादव का।
जनता जानती है कौन विकास करता है और कौन नही करता? जनता सराहती भी है और पलटकर भी रख देती है। दलित वर्ग के लोगों को अहसास हो गया था कि मायावती उन्हें केवल वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करती है आरक्षण हो या उत्थान इससे दलितों की बसपा सरकार बनने के बावजूद दलितों को कोई लाभ नही हुआ फिर क्यों वें बसपा के वोटर बने रहें, मुस्लिम समझ चुका था कि मायावती हर बार हारने के बाद मुस्लिम वोटर के गद्दारी करने की बात दोहराती हैं और मौका मिले तो मुसलमानों की तथाकथित दुश्मन भाजपा से हाथ मिला लेती है, गुजरात जाकर मुस्लिम दंगों के आरोपी नरेन्द्र मोदी के लिये वोट अपील करती है फिर जब वोट लेने के बाद सौदा कथित दुश्मन से ही होना है फिर सीधे भाजपा को ही क्यों न वोट दे दिया जाये। मंथन तो अखिलेश यादव को भी करना होगा स्वयं सुप्रीम पॉवर बनने के फेर ने उन्हे यादवों ही से दूर कर दिया।
यदि पूरे चुनावी दौर की बात करें तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबन्धन के पास सिर्फ अखिलेश एकमात्र स्टार प्रचारक रहे जो अच्छा बोल लेते हैं, राहुल गांधी तो केवल हास्यपात्र बनकर रह जाते हैं, मायावती के पास कोई वक्ता तक नही जबकि वें खुद भी पढ़कर ही भाषण देती हैं। लेकिन बेहतरीन वक्ता न केवल बोलता है बल्कि भीड़ को वोटों में तब्दील कर लेता है और इसमें दो राय नही कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस कला में माहिर हैं फिर मुलायम सिंह यादव, सोनिया गांधी आदि की आंशिक उपस्थिति भी एक कारक रही।
उधर अगर कैडर कैम्पेन की बात करें तो मात्र भाजपा ही ऐसा दल है जिसके पास फर्ज़ी नही असली बूथ लेवल कैडरमौजूद है इसके चलते भाजपा के पक्ष में इतना ज़बरदस्त नतीजा सामने आया है।
अतः यह अब स्पष्ट है कि यही जनादेश है जिसे तमाम पराजित दल जितनी जल्दी स्वीकार करें उतना बेहतर, अन्यथा इस प्रकार के सवाल तो लोकतन्त्र के वजूद पर ही सवाल खड़े करते हैं। बहाने बनाने के स्थान पर राजनीतिक दलों को अपने वजूद को साबित करने के पुनः प्रयासों की आवश्यकता है ।
ravish ahmad
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