हकीम-ए-उम्मत मौलाना डा. कल्बे सादिक़ साहब के मिशन को बाक़ी रखने के लिये एकबार फिर हिम्मत करने का दिल चाहता है कि अवधनामा हर रोज़ आपके हाथों में वैसे ही हो जैसे कि हुआ करता था। डा. कल्बे सादिक़ साहब ने अपने इल्मी मिशन को जारी व सारी रखने के लिये जहां ब नफ़सो नफ़ीस ख़ुद बहुत कुछ किया वहीं पूरी क़ौम की हर लम्हें ऐसी ज़हनसाज़ी भी की कि क़ौम इल्म हासिल करे, ज़्यादा जदीद तालीम के वसायल पैदा हों जिससे जेहालत का ख़ात्मा हो।
कहते हैं कि पत्थर पर एक हल्की सी पानी की बूंद भी अगर लगातार गिरती है तो अपना नक्श छोड़ देती है डा. कल्बे सादिक़ साहब ने भी इल्म की शमा को ऐसा जलाया कि वह कभी मध्यम नहीं पड़ी इतनी तकरार की कि जऱा सा भी शऊर रखने वाला शख़्स इससे मुतासिर हुये बिना न रहा सका। हो सकता है मेरी यह ग़लतफ़हमी हो कि हकीम-ए-उम्मत मौलाना डा. कल्बे सादिक़ साहब मेरे भी बहुत कर्मफऱमा थे, लेकिन यह यक़ीनी है कि मेरे तमाम प्रोग्राम उनके बिना अधूरे थे, उनसे हर मुलाक़ात पर कोई नई बात सीखने को मिलती थी और अपने मिशन पर कैसे अडिग रहो यह उन्हीं ने सिखाया था उनका एक जुमला जिसकी मैने गांठ बांध ली और उसने हमेशा हमें सुखऱ्रू भी रखा वह था कि तुम जो काम कर रहे हो करते रहो, लोग बहुत कुछ कहेंगें, बस किसी का कोई जवाब नहीं देना बस अपना काम करते रहना यही तुमको कामयाबी की मंजि़लों तक ले जायेगा और शायद यही एक वजह थी कि उनकी क़ुरबत ने अवधनामा एजूकेशन ट्रस्ट की बुनियाद रखवायी जिसके तहत कभी किसी से एक पैसे का चन्दा लिये बग़ैर बेहद महदूद वसायल होने के बावजूद तकऱीबन अब तक 100 से ज़्यादा मुस्तहक़ बच्चों की पूरे साल की फ़ीस इस अवधनामा ट्रस्ट के ज़रिये दी जा चुकी है।
अवधनामा ने, हकीम-ए-उम्मत मौलाना डा. कल्बे सादिक़ साहब की जि़न्दगी में भी उनके मिशन का हिस्सा बनने की हर मुमकिन कोशिश की, जिसे उन्होंने हमेशा सराहा भी। आज भी दिल में बस यही तमन्ना है कि जो मिशन लेकर वह पूरी जि़न्दगी जिये और इस दुनियां-ए-फ़ानी को अलविदा कहने के बाद भी अपनी वसीयत के इस फिक़ऱे से इस मिशन को बाक़ी रखा कि अगर हमारे लिये कोई इसाले सवाब करना चाहे तो किसी एक मुस्तहक़ बच्चे की पढ़ाई की जि़म्मेदारी ले ले’’। दिल तो यही चाहता है कि अवधनामा को उनके इस मिशन के लिये वक्फ़़ कर दूं और यह अवधनामा हर रोज़ सुबह आपके हाथों में वैसे ही हो जैसे कभी हुआ करता था लेकिन आज के हालात वैसे नहीं रहे जैसे कभी हुआ करते थे और वैसे भी क्या अजऱ् करूं सिवाये ग़ालिब के इस शेर के:-
रखियो ग़ालिब मुझे इस तल्क़ नवाई से माफ़
आज कुछ दर्द मेरे दिल में सिवा होता है।।
ग़ालिब के इस शेर के साथ कुछ तल्क़ हक़ीक़त भी आपके सामने पेश करता चलूं कि हमारे रहबर ने, हमारे आलिमें दीन ने, हमारे तमाम ओलेमा ख़ोतेबा ने ख़ुम्स व जक़़ात में हक़ और सदाक़त पर मबनी किसी भी ऐसे अख़बार के लिये न कोई हिस्सा रखा और न कोई सवाब जो कभी इक़तेदार के आगे न झुका हो जिसने कभी मसहलत पसंदगी से काम न लिया हो जिसने अख़बार को बन्द करना तो गवारा किया हो लेकिन ज़ालिम की हिमायत करना नहीं, यही नहीं पूरे सवा दो महीने मोहर्रम और साल के 12 महीने हर शहादत विलादत हर महफि़ल, मजलिस हर अदबी जलसे यहां तक अगर बैरूनिये शहर भी इत्तेहादे मुस्लिमां के नाम पर कोई अमीरूल मोमनीन कान्फ्ऱेंस हो तो अपने जऱाये से तीन तीन दिन रहकर लाईव रिपोर्टिग करके किसी भी ख़ुम्स व जक़ात पर चलने वाले मज़हबी रिसाले से ज़्यादा वरक़ शाया किये हों, लेकिन ऐसा अख़बार न रहे इसका अफ़सोस तो सबने किया लेकिन तदबीर किसी ने नहीं की।
ऐसे में अगर चाहूँ भी कि हकीम-ए-उम्मत मौलाना डा. कल्बे सादिक़ साहब के इत्तेहाद और इल्म के मिशन को बाक़ी रखने के लिये एकबार फिर अवधनामा को आप तक पहुंचाने की कोशिश करूं तो भी मुमकिन नहीं जब तक पूरी उम्मते मुस्लिमां के सिफऱ् 50 कारोबारी भी इसकी अहममियत न समझे कि ऐसा कोई अख़बार अवाम के बीच होना चाहिये, और अगर वह समझे तो इस बात का क़स्द करें कि हम अपने कारोबार के कम से कम 10 हज़ार रूपये के इश्तेहार हर माह ज़रूर इस अख़बार को देंगें जिससे न सिफऱ् अख़बार निकलता रहेगा बल्कि उनके कारोबार के लिये भी फ़ायदेमंद होगा। यह ज़मीमा भी इसकी तसदीक़ करेगा कि किस तरह हकीम-ए-उम्मत मौलाना डा. कल्बे सादिक़ साहब की पल पल की ख़बरों को अपने महदूद वसायल होने के बावजूद महफ़ूज़ किया यही शायद हमारी इंफिऱादियत भी है।
वक़ार रिज़वी
9415018288