हुमायूँ चौधरी
जहाँ एक ओर सत्तारूढ़ भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र या उत्तरप्रदेश जैसे बड़े सूबे में काबिज़ होने के बावजूद संगठन मज़बूती के मामले में कोई लापरवाही करती नहीं दिखती । वहीं काँग्रेस पार्टी चंद सालों में अपनी सियासी ज़मीन खोने के बावजूद भी सारे फैसले अधकच्ची नींद में लेती नज़र आ रही ।
भाजपा ने जो कभी एक सपना देखा था काँग्रेस मुक्त भारत का उसे भाजपा से ज़्यादा काँग्रेस ने स्वम् ही साकार करने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी । जिसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा देश की मुख्य राजनीतिक पार्टी हो गई और काँग्रेस पूरी तरह विपक्ष की भूमिका न निभाने के कारण से सदन में मुख्य विपक्षी की पहचान भी खो बैठी । लेहाज़ा उत्तर प्रदेश समेत कई राज्य ऐसे हैं जहाँ कॉंग्रेस तीसरे या चौथे नम्बर पर सिमट के रह गई है ।
लेहाज़ा अपनी खोई हुई राजनीतिक ज़मीन वापस लाने में पार्टी कितनी गंभीर है जिसकी जीती जागती मिसाल हाल ही में 24 अकबर रोड नई दिल्ली के काँग्रेस मुख्यालय से निकला फरमान है ।
जिसमें लिखा था कि पूर्व विधायक नदीम जावेद के स्थान पर कांग्रेस अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी शायर इमरान प्रतापगढ़ी को दी जाती है ।
अब आइये राष्ट्रीय स्तर के पद के पहलुओं पर नज़र डालते चलते हैं कि पूर्वांचल में अगर देखा जाए तो युवा पीढ़ी की कतार में पूर्व विधायक नदीम जावेद का नाम सक्रिय राजनीति में उभर कर आता है । जिसका कारण है कम अवस्था मे छात्र राजनीति से लेकर इसी काँग्रेस पार्टी की छात्र इकाई एन एस यू आई के राष्ट्रीय अध्यक्ष के अलावा काँग्रेस के टिकट पर विधायक निर्वाचित हो चुके हैं । देखा जाए तो इसमें काँग्रेस पार्टी की पहचान कम बल्कि स्थानीय स्तर पर उनकी राजनीतिक सक्रियता ख़ास वजह रही ।
1976 में जौनपुर में जन्में पूर्व विधायक नदीम जावेद ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ छात्र राजनीति में भी भाग्य आज़माना शुरू कर दिया था । और 2012 आते-आते जौनपुर विधानसभा सीट पर उस समय कब्ज़ा जमा लिया जब समाजवादी पार्टी की लहर थी । ये सीट काँग्रेस की झोली में करीब 25 साल बाद वापस मिली थी वह भी उस समय जिस समय बिल्कुल भी संभव नहीं था । इससे लगता है कि सक्रिय राजनीति कब काम आती है । जबकि देखा जाए तो 2007 में काँग्रेस पार्टी को इसी विधानसभा सीट पर महज़ 3000 वोटों से संतुष्ट होना पड़ा था । वहीं दूसरी ओर शायर इमरान प्रतापगढ़ी को एक ऐसे पद की ज़िम्मेदारी दी गई है जो वर्तमान समय मे बहुत मायने रखती है यानी अल्पसंख्यक को जोड़ना वो भी वोटों की सूरत में न की केवल भीड़ जुटाना । राजनीतिक पृष्ठभूमि की दृष्टि से देखा जाए तो इमरान प्रतापगढ़ी का कोई ऐसा इतिहास नहीं रहा जिससे वह कभी सक्रिय राजनीति में रहे हों जो उन्हें इतने बड़े पद की ज़िम्मेदारी दी गई है । जबकि काँग्रेस हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में मुस्लिम बाहुल्य सीट से इमरान प्रतापगढ़ी पर एक दावं लगाकर जीती बाज़ी बुरी तरह हार चुकी है जिसमें पार्टी ज़मानत तक न बचा सकी थी । बावजूद इसके पार्टी ने सबक न लिया ।
पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने दबी ज़बान में यहाँ तक कहा कि फ़िल्मी कलाकार हो या किसी खेल के मैदान का मंझा खिलाड़ी राजनीति में आने के बाद उन्हें केवल लहर में जीत का फायदा मिलता है । इसका कतई यह मतलब नहीं होता कि उनके पीछे जनाधार है । ज़मीनी सतह पर काम करके पार्टी की पॉलिसी को जन-जन तक पहुंचाने का काम किसने कितना किया इसका विश्लेषण ही किसी पार्टी को उसे सत्ता में बनाये रखता है । और इन्ही सब बातों को लेकर पार्टी में मौजूद वरिष्ठ नेताओं का एक बड़ा वर्ग पार्टी के नेतृत्व से नाराज़ भी है ।
एक बार तो कपिल सिब्बल ने पार्टी को खुद का आकलन करने की सलाह तक दे डाली थी।
शहज़ाद पूनावाला की अगर हम बात करें तो काँग्रेस के पास एक ऐसा पढ़ा लिखा नौजवान जो कि कानून विद् भी है की और मीडिया सहित अन्य मंचों पर पार्टी का पक्ष मज़बूती से रखते रहे । पार्टी हित की बात करते हुए लोगों को जोड़ने का काम भी किया । ख़ासतौर से अल्पसंख्यक वर्ग में भी पकड़ का कारण पूनावाला का उस वर्ग के मुद्दों को उठाते हुए उनके हितों की बात करना । लेकिन काँग्रेस पार्टी से आजकल पूनावाला की नाराज़गी का एक मात्र कारण कोई भी अहम फ़ैसले में सबकी राय न लेना ।
शहज़ाद पूनावाला ने पार्टी के शीर्ष पद (अध्यक्ष) की चुनाव प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए कहा था कि एक व्यक्ति के ‘चयन’ के लिए ‘चुनाव’ का दिखावा किया जा रहा है ।
इसी तरह अल्पसंख्यक वर्ग में एक जाना पहचाना नाम पूर्व विधायक इमरान मसूद का भी है जिनकी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जनपद सहारनपुर और आस-पास के इलाकों में ख़ासी राजनीतिक ज़मीनी पकड़ है । और इमरान मसूद ऐसे परिवार से आते हैं जिसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि है और जनता से बराबर संवाद रहने की वजह से उनका ख़ासा जनाधार भी है।
राजस्थान में 5 साल तक काँग्रेस विपक्ष में रही अपनी पार्टी का पक्ष सचिन पायलट ने हमेशा मज़बूती से रखकर कड़ी मेहनत की जिसका नतीजा यह निकला
कि पार्टी जब सत्ता में आई तो सचिन पायलट को मुख्यमंत्री पद तो दूर की बात और उनको हाशिये पर डाल दिया गया ।
ज्योतिरादित्य सिंधिया के मामले में भी कमोबेश कुछ यही रहा कि उन्हें पार्टी से इसलिए जाने दिया गया कि नेतृत्व को शायद राहुल के लिए कहीं न कहीं ख़तरा नज़र आने लगा था क्योंकि ज्योतिरादित्य में अध्यक्ष बनने के सारे गुण थे ।
कुल मिलाकर अगर माना जाए तो कहीं न कहीं काँग्रेस पार्टी में नगीने परखने वालों की कमी सी है।
जिसके चलते ग़लत फैसले ही पार्टी को धीरे-धीरे हाशिये पर ले आये । अगर काँग्रेस समय रहते न संभली तो पार्टी में मौजूद बचे हुए ज़मीनी नेता भी जल्दी ही अपना भविष्य कहीं और तलाशते नज़र आएँगे ।
पार्टी के लिए राजनीतिक पृष्ठभूमि और अच्छी छवि तथा सांगठनिक क्षमता वाले वरिष्ठ और युवा नेताओं को तरजीह देना श्रेयस्कर रहेगा ।
अन्यथा समय रहते काँग्रेस पार्टी अब भी न चेती तो वह राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान मुश्किल से बचा पाएगी ।
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