मुशी प्रेमचन्द्र उपन्यास सम्राट

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साहित्य
एस.एन.वर्मा
31.7.1880 को पैदा हुये और 8.10.1961 को संसार को अलविदा कह दिया। जब मरे तो हिन्दी सहित्य के महान लेखक के रूप में स्थापित हो चुके थे। प्रारभ उर्दू लेखन से किया था। रचनायें गोदान, गबन, कर्मभूमि, रंगभूमि उपन्यास और बड़े घर की बेटी, दो बैलो की जोडी जैसी कहानियां लिख चुके थे। बनारस में जब उनकी मृत्यु हुई तो उनकी लाश को साथ इतने कम आदमी थे कि लोग आपस में कहने लगे कोई मास्टर मरा होगा। उस समय शिक्षक सबसे निरीह माना जाता था।
प्रेमचन्द्र जीवन भर अभावों, दुखों और रूढ़ियों से लड़ते रहे। यहां तक कि जन्म के पहले ही उनके दुखों की भूमिका बनने लगी थी। उनकी मां पाक कला में प्रवीण रूप में अद्वीतीय सुसकृत महिला थी। उनकी एक एक करके बेटियां गुजर चुकी थी। गांव वालो आरोप लगाते थे उनके मायके में भूत है जो उनके बच्चों का खा जाता है। वह घबरा कर मायके चली गई वहां तीसरी बेटी को जन्म दिया जो पूरी जिन्दगी सामान्य रूप से जी।
इसके बाद चौथी सन्तान गर्भ में आई। गांव वालों ने कहना शुरू किया तेतरा कहे बहेतरा से तूखा माई के हम खाई बाबू के। हिन्दुओं में अन्ध विश्वास है कि लगातार तीन लड़कियांे के बाद अगर चौथा लड़का पैदा होता है तो वह माता पिता के लिये शुभ नहीं होता उनके मौत की वजह बनता है। मां सुनती रही बच्चा जीया, मां बाप सकुशल रहे। यही लड़का आगे चलकर महान उपन्यासकार मुन्शी प्रेमचन्द्र बना। प्रेमचन्द्र हमेशा मुशकिलो में रहे, आर्थिक तंगी से जुझेते रहे। स्कूल के डिप्टी इन्सपेक्टर बने। कई बार सस्पेन्ड हुये फिर नौकरी छोड़ दी। जिन्दगी भर लेखन में जरिये और व्योंहार में भी रूढ़िवादिता, जड़ता, अन्धविश्वास से लड़ते रहे। पहली शादी जिस लड़की से हुई वह बहुत बदसुरत और बदजुबान थी। बड़े बडे़ मोटे मोटे चेहरे पर चेचक के दाग थे, रंग तो काला था ही। परिवारिक जीवन इतना कटु हो गया कि पत्नी को उसके मायके भेज दिया। इसके बाद न वह लेने गये न वह वापस आयी कभी बहुत देर से एक विधवा शिवारानी जी से शादी की। जो सुन्दर थी, विदुषी थी, सुस्कंृत थी। उनके साथ प्रेमचन्द्र का जीवन सुख से बीता। जीवन में भी आदर्शो को प्रति कट्टर रहे। अन्धविश्वास और रूढ़वादिता को तोड़ते रहे। बेटी की शादी बिना दहेज के की उसे दान की वस्तु नही माना इसलिये कंन्यादान भी नही किया। पर मां बेटे का उत्कर्ष देखने के लिये जिन्दा नहीं रही। बेटे के जन्म के आठ साल बाद गुजर गयी।
प्रेमचन्द्र का असली नाम धनपंत राय था। बनारस के लमही गांव में उनका पैतृक घर है जहां उनके नाम पर एक छोटा सा संग्रहालय है। वही उनका स्मारक है। प्रेमचन्द्र फिल्मी दुनियां में भी लेखक की हैसियत से गये दो एक फिल्मे लिखी पर वातावरण रास नहीं आया वापस लौट आये। प्रेमचन्द्र जीवन भर इतनी सादगी से रहे कि उनको देखे कर भ्रम होता थां। कोई मजदूर है। अमीनाबाद, लखनऊ चौराहे पर कई साल तक रहे। वही प्रसिद्ध हिन्दी लेखक जैनेन्द्र कुमार उसे मिलने के लिये आये। सुबह का टाइम था। प्रेमचन्द्र टहल कर आ रहे थे। उन्हीं से जैनेन्द्र ने प्र्रेमचन्द्र का घर पूछा। प्रेमचन्द्र ने घर बता दिया और अन्दर चले गये। थोडी देर में जैनेन्द्र देखा प्रेमचन्द्र के नाम पर जो आदमी उनसे मिलने आ रहे है वह वही शख्स है जिससे उन्होंने प्रेमचन्द्र का घर पूछा था।
साहित्य में भी प्रेमचन्द्र ने बहुत गम्भीर बाते बहुत ही सरल भाषा में कही है। शब्दों का आडम्बर नही है। अनुभव की इमानदारी है। प्रेमचन्द्र के बीते 142 साल हो गये पर उनके उपन्यास, कहानियां आज भी लोगो के जुबान पर है। यद्यपि आज डिजिटल का जमाना है। छपा साहित्य दिन ब दिन गायब होता जा रहा है। फिर भी कोई साहित्यक चर्चा बिना प्रेमचन्द्र के नाम के पूरी नही होती है। वैसे लेखन शुरू करने वाला हर शख्स की लालस प्रेमचन्द्र बनने की होती है। पर लालसा नही कृति प्रेमचन्द्र बनाती है। प्रेमचन्द्र गरीबो, आम आदमी के दिल में उतर कर लिखे। भोगा हुआ, देखा हुआ यथार्थ लिखा। उन समस्याओं से टकराये जो उन दिनों मुखर थी। उनके हल भी सुझाया। हर तरह की सामाजिक कुरीतियों और विकृतियों से टकराये और साहित्य में उतारा उस समय सबसे प्रताड़ित, रूढिग्रस्त और निर्धन किसान तबका था जो भायानक शोषण का शिकार था। गोदान, उपन्यास उन सारी समस्याओं को हृदयविदारक रूप से दिखाया। जिसे पढ़कर आदमी अभिभूत हो जाता है। उस समय की सारी समस्याओं से वह लड़े और अधिकारिक रूप से उस पर लिखे। समाज में होने वाले बदलाव के केन्द्र को और उसके अन्तरविरोध को जानकर लिखा। उनसे मुठभेड़ किया। मनोविज्ञान और समाजिक संचरनाओं का उन्हें पूरा ज्ञान था। इसीलिये उनके लेखन में हर तबके, हर उम्र के लोग मिलते है। उनमें रेन्ज, विस्तार और गहराई है जो साहित्यकार को महान बनाती है। आदर्शवादी यथार्थवादी समाज की रचना उनके लेखन का आदर्श थे। उनके जमाने में टैगोर, शरतचन्द्र, जैनेन्द्र जैसे महान लेखक थे पर प्रेमचन्द्र उन सबमें अलग दिखते है। अंग्र्रेजी फ्रेन्च में तो महान साहित्कारों ढंर है। पर प्रेमचन्द्र जैसी लोकप्रियता देखने को नही मिलती है।
हालाकि आज की पीढी काफी इन्टेलिजेन्ट है, तकनीकील रूप से बहुत आगे है। उनकी तुलना में हम बूढे लोग निरक्षर है। दुनियां हर चीज में बहुत आगे है। पर हिन्दी की बात कर रहा हॅू साहित्य में बहुत पीछे है। कविता की तो और भी बुरी हालत है। तुलसीदास और प्रेमचन्द्र की टक्कर का कोई नही दिखता। पर प्रेमचन्द्र सबके अपने दिखते है। अवधनामा परिवार का नमन।

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