अब अपराध बोध के साथ जियेगा ये मासूम

0
126

रफ़त फातिमा

जब दौलत, धर्म और स्टेटस ही रिश्तों के मापदण्ड हों तो कभी-कभी ऐसे हालात पैदा हो जाते हंं जिनसे रूह तक काँप जाती है. अक्सर हालात में प्रेमी-प्रेमिका को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ता है तो कभी समाज और परिवार “इज़्ज़त” के लिये हत्या (honour killing) कर देते हैं.

अब सरकारें भी इस मामले में दख़ल देने लगी हैं और पुरातनवादी सोच ने “लव जिहाद” के नाम पर प्रेमियों के लिये (selective) सज़ा का प्रावधान कर दिया है.

एक अध्ययन के अनुसार आत्महत्याओं में दो तिहाई संख्या नयी पीढ़ी की है जो घुटन भरे माहौल में जीने को अभिशप्त है, क्योंकि उनके लिए जीवन साथी चुनने के अधिकार को आज भी विदेशी संस्कृति के प्रभाव से जोड़ा जाता है.

भारतीय समाज की जड़ता इतनी गहरी है कि इस सिलसिले से किसी क्रांतिकारी परिवर्तन की उम्मीद नज़र नहीं आती. परिवार, समाज और अब राज्य इस जड़ता का पोषक है.

शबनम के मामले पर बहुत कुछ लिखा गया है, उसके अपराध को जस्टिफ़ाई करना स्वयं एक अपराध है और उसने जो किया उसकी सज़ा उसे मिलनी चाहिए, लेकिन, यह अपराध भी इसी ‘जड़ता’ के पेट से जन्मा है, जहाँ धन, दौलत, ख़ानदान, ज़ात स्टेट्स सब कुछ निर्धारण करता है.

हम निजी तौर पर capital punishment के ख़िलाफ़ हैं क्योंकि इसके पक्ष में तर्क बहुत ही कमज़ोर हैं. हमारे सामने कोई ऐसा कोई अध्ययन नहीं है जो इसे deterrent factor साबित कर सके. रही बात मीडिया की, तो वह सिर्फ़ बाज़ार देखता है उसे समाज से कोई सरोकार नहीं है, शायद कभी रहा हो.

यह भी पढ़ें : यह दृष्टिकोण चिंताओं को जन्म देता है

यह भी पढ़ें : योगी सरकार ने पेश किया यूपी का सबसे बड़ा बजट, किसानों के लिए कई एलान

यह भी पढ़ें : पुडुचेरी के मुख्यमंत्री नहीं साबित कर पाए बहुमत, दिया इस्तीफ़ा

यह भी पढ़ें : बढ़ी तेल कीमतों पर सोनिया ने लिखा पीएम मोदी को ख़त

आज ज़रूरत है एक परिवर्तन की जिसकी शुरुआत हमारे दिल ओ दिमाग़ से होना चाहिये. यह सवाल ही बेमानी है कि उसके ‘मासूम बच्चे’ को एक अपराध बोध के साथ जीना पड़ेगा. आख़िर ऐसा विचार पैदा ही क्यों होता है

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

Also read

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here