एस.एन.वर्मा
जुवेनाइल जस्टिस एक्ट नाबलिगों के लिये है। इसके तहत नाबालिग अगर जुर्म करते है तो उनके अनुभवहिनता और उम्र को देखते हुये सजा में रियायत दी जाती है। चूकि सजा अपराधियों में सुधार लाने के लिये भी दी जाती है। खास कर नाबालिंग को सजा का मक़सद पूरी तरह सुधार लाना है। पर देखा जा रहा है नाबालिग में अपराध प्रवृत्त बढ़ती जा रही है उसकी कई वजहे है। तरह तरह की साइट जिसमें अशलीलता रहती है। सिनेमा और टीवी शो में भी कामुकता रहती है। वेशभूषा भड़काऊ जानबूझ कर डिजाइन की जाती है। यह तो हुआ सामाजिक पहलू कानूनी पहलू यह है कि रियायती सज़ा को जुर्म से सख्त सज़ा से छूट पाने के लिये दावपंेच के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। बालिग को नाबालिग साबित करने के लिये कोर्ट में जोर लगाया जाता है।
कठुआ गैग रेप और मर्डर केस 2018 में हुआ था इस केस में आरोपी को सजा में रियायत दिलाने के लिये नाबालिग बताया गया था। इस केस में सुप्रीम कोेेेेेेेेेेेेर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुये व्यवस्था दी है कि अपराध करते समय आरोपी बालिंग था। इसलिये उस पर मुकदमा बालिंग समझ कर चलाया जाये। इस केस में अपराधी ने आठ साल की बच्ची के साथ बेहद क्रूरता की थी। इसे लेकर उन दिनों यह कई दिनों तक चर्चा का विषय बना रहा। यह केस इसलिये भी चर्चा में रहा कि इसमें राजनीति घुस गई और अपराधी के बचाने के लिये रिययती सज़ा दिलाने के लिये नये नये हथकन्डे अजमाये गये थे। इसकी चर्चा बहुत दिनों तक होती रही।
आरोपी के उम्र को लेकर सन्देह शुरू से ही था। उम्र को लेकर बचाव पक्ष ने जो अभिलेख दिये थे कोर्ट को उसमें कई खामियां दिखी। केस जब निचली अदालत में था तो निचली अदालत प्रस्तुत दस्तावेज की खमियांे को नही पकड़ सका था। इसे लेकर विशेषज्ञों ने अपनी राय दी थी। विशेषज्ञों की एक समिति थे इसलिये सुप्रीम कोर्ट ने विशेषज्ञों की राय पर भरोसा जताया विशेषज्ञों ने आरोपी की उम्र अपराध के समय 19-23 के बीच बतायी है। यद्यपि विशेषज्ञों ने जो राय दी वह किसी मेडिकल साक्षय के आधार पर नही दी है यह उनकी अपराधी की उम्र के बारे में उनकी राय है। सुप्रीम कोर्ट ने विशेषज्ञों की राय पर भरोसा करना बेहतर समझा और उसी को माना। अपर्याप्त साक्ष्य की वजह से यही रास्ता न्यायपूर्ण लगा। कोर्ट के राय से निष्कर्ष निकलता है कि अगर उम्र को लेकर सन्देह की स्थति बनती है तो अपर्याप्त दस्तावेज को नजरअन्दाज कर विशेषज्ञों की राय मानकर उसी के आधार पर फैसले का आधार बनाया जाना न्यायपूर्ण होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने जूवनाइल जस्टिस एक्ट 2015 के बारे कुछ कहा तो नही पर उसक ेराय से यह ध्वनि निकलती है कि नाबालिक बताकर बच्चों को सज़ा में रियायत देने उनमें अपराध की प्रवृत्ति बढ़ती है। यह देखने में भी आता है कि बहुत से बच्चे किशोर साहसिकता के प्रभाव में अपने नाबालिंग साथियों ने पर अपना प्रभाव जमाने के लिये हीरोगिरी केेेेेेेेेेेेे नाम पर दुष्कर्म करते हुये गौरव महसूस करते है। दरसल यह एक तरह की मानसिक बिमारी है। ये आम बच्चे नही होते है। माता पिता अगर नौकरी पेशा वाले है तो बच्चोेेेेेेेेेेे की तरफ उचित ध्यान नही दे पाते है बच्चे उनसे बचा कर पार्न साइट देखते है फिर दूषित विचार रख दूषित काम करते है। बचपन से ही इनकी सोच दूषित हो जाती है।
इन सब तथ्यों से यही दिख रहा है कि जुवेनाइल एक्ट जिस मकसद के लिये बनाया गया उनका फायदा समाज या बच्चों को नही मिल रहा है बल्कि बाल अपराध के लिये कुछ हद तक ढाल का काम कर रहा है। इसे कानून की विडम्बना ही कहा जायेगा। न्याय शास्त्रियों, समाजिक कार्यकर्ताओं और एनजीओ से आशा की जाती है और उन्हें गम्भीरता से इसे लेना भी चाहिये कि अपनी कोशिशों से बच्चो में जो विकृतियां पैदा हो रही है उसे दूर करने का उपाय निकाले और इसका प्रचार करे। लोगों को बच्चों के इसकी ओेेेेेेेेेेेेेर आकषित करें।
प्रशासनिक दृष्टि से सरकार पर इसकी अहम जिम्मेदारी आती है। उनके हाथ में जनमत है, प्रशासनिक अधिकार है, लोकसभा, विधानसभा की ताकत है। जुवेनाइल एक्ट 2015 पर विचार करे, न्यायविदो, सामाजिक कार्यकर्ताओं और एनजीओ से मिलकर सर्थक बहस इस मुद्दे को लेकर चलाये। जिस पर एकमत बने उसे लेकर उसीकेेेेेेेेेेेेेे अनुसार कानून बनाये। जिससे जुवेनाईल एक्ट का इस्तेमाल अपराधियों के बचाने के लिये न किया जाय बल्कि उन्हें सुधारने के लिये किया जाय। ऐसा कानून बने जिससे इच्छित नतीजे निकले।
कानून नाबालिगों में सुधार के लिये बना कर छोड़ देने से ही काम नही चलेगा। सतत रूप से देखना पड़ेगा कि जो सज़ा जुवेनाइल एक्ट के तहत दी जा रही है उससे बच्चों में सुधार आ रहा है या नही। यदि सुधार नही आ रहा है तो नियम में संशोधन करते रहना चाहिये, सतत मीनीटरिंग होती रहनी चाहिये। अगर कानून अपराधियों को बचाने मेेेेेेेेेेेेे सहायक हो रहा हो तो उसे तुरन्त बदल देना होगा। जब कानून बच्चों में सुधार लाने लगे तब समझना चाहिये कि कानून का मकसद पूरा हो रहा है। अपने यहां योग्यता की कोई कमी नही है। मुद्दे राजीनीतिकरण से दूषित हो जाते है इन्हें इस तरह की करकतों से बचाना पड़ेगा। यह तो सामाजिक नियम है न तो पूरी तरह अच्छाई ही व्याप्त कराई जा सकती है न बुराई। दोनो द्वन्द के बीच से रास्ता निकेलेगा।
अपराध की प्रवृत्ति दूषित दिमाग की उपज होती है। ज्यादा अपराधी मानसिक बिमारी से ग्रस्त होते है। इनका मनोवैज्ञनिक उपचार कराया जाय बहुत कुछ फायदा मिल सकता है। सजा के साथ साथ वयस्क अवयस्क सभी प्रकार के अपराधियों को मनोवैज्ञानिक उपचार प्राथमिकता केपर्याप्त रूप से कराया जाना चाहिये। यह उपचार धीरज मागता है। अगर संयम के साथ इस तरह का उपचार कुशल लोगों से यानी विशेषज्ञों से कराया जाये तो अपराध प्रवृत्ति में निश्चित बदलाव आयेेगा।
रोग के दबाने के बाजय रोग को जड़ से समाप्त करना ध्येय होना चाहिये। जुवेनाईल एक्ट पुनरनिरिक्षण चाहता है।
लज्जत थी पहले अब मुसीबत सी बन गई है
हमको गुनाह करने की आदत सी हो गई है