अवधनामा संवाददाता
ललितपुर। अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो. भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि बालिकायें और बालक भगवान के घर से आते हैं और सदा ईश्वर के ही निकट होते हैं। माता-पिता, पड़ोसी जो भी उनके सम्पर्क में आता है उनका अच्छा-बुरा प्रभाव पड़ जाता है। यदि बच्चा घर पर कोई बात कह देता है जो पेरेन्ट्स को पसंद नहीं होती तो उसे वे सच बोलने की जगह झूठ बोलना सिखा देते हैं, जिसका उसके छलरहित हृदय पर बुरा प्रभाव पड़ जाता है तथा गुणोत्कर्ष की रफ्तार धीमी पड़ जाती है। जिस घर की महिलाएँ सत्य का पालन करतीं हैं उसी घर में महापुरुष जन्म लेते हैं। हमारा संविधान हर प्रकार के विशेषरूप से लैंगिक भेदभाव से सर्वथा मुक्त है। परन्तु व्यवहार में अंधे क्रोध के वशीभूत होकर हम इतने विवेकहीन हो जाते हैं कि अपने को भोपाली या किसी भी महानगर का शूरमा समझने लगते हैं और अपनी कायरता छिपाने के लिए स्त्री योनिपरक गाली-गलौज बेरोकटोक तकियाकलाम के रूप में बकते रहते हैं। इसलिए इस यौनपरक मर्दाना वाचिक दम्भ पर रोक लगाने के लिए दंडनीय अपराध घोषित करना चाहिए। साथ ही सभी प्रकार के नशा सेवन पर कारगर लगाम लगाना समय की माँग है , क्योंकि अधिकांश बालअपराध उन नशेडय़िों के कारण होते हैं जो नशे की लत की वजह से भाई-बहन के पवित्र संबध को भूल जाते हैं। अदालतों से दण्डमुक्ति बहुसंख्यक अपराधियों को मिल जाती है जो हमारी संवेदनशीलता और बौद्धिकता के लिए एक चुनौती है। पुरानी कहावत है, दो भूखे भेडि़ए अगर भेड़ों के झुण्ड में घुस जाएं तो इतनी तबाही नहीं मचाते, जितनी तबाही, एक आदमी का धन और उससे उत्पन्न लोभ-लालच तथा निरंकुश अहंकार। न्यूयार्क टाइम्स अखबार ने अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस की पृष्ठभूमि में लिखा है इंस्टाग्राम डाइटिंग से सम्बन्धित पोस्ट से 32 फीसदी किशोरियों में अपने शरीर के प्रति हताशा पैदा होने लगी है। व्यवसायी 12-13 साल की लड़कियों को उनकी उनकी शारीरिक फिगर की चिन्ता में झोंककर, इतने फिक्रमंद होकर शरीर को दुबला-पतला बनाने की सीख दे रहे हैं जैसे वे ही उनके वास्तविक माता-पिता हों। जिन गरीबों की थाली में सिर्फ चटनी रोटी ही हो और दाल-तेल गायब हो चुका हो, उसे जीवन जीने के नैसर्गिक मानवाधिकार का उपभोग कराना क्या हमारी उपभोक्ता संस्कृति की प्राथमिकता है?