यहां मंदिर में आजान और मस्जिद में गूंजती है आरती

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अवधनामा संवाददाता  (शकील अहमद)

62 साल में कभी नही हुआ विवाद, अमन व शांति का पैगाम देता है हरीहरपट्टी

कुशीनगर। मैं मुस्लिम हूँ, तू हिन्दू है, दोनों है इंसान। ला मैं तेरी गीता पढ़ लूँ, तू पढ़ ले कुरान।। यह पंक्तियाँ तथागत की धरती कुशीनगर के टेकुआटार हरिहरपट्टी में बने मंदिर और मस्जिद पर सटीक बैठती है। यहां दोनों मजहब के धर्मस्थल आज के दौर में सांप्रदायिक भाईचारे की मिसाल के कसीदे पढ रहे है। यहां आपसी सौहार्द की तस्वीर यह है कि मंदिर में पढी जाने वाली आरती की धुन मस्जिद में सुनाई देती है तो मस्जिद से निकले अजान की स्वर मंदिर में। देखने सुनने वाले कहते हैं, अपने तो दिल में है दोस्त, बस एक ही अरमान। एक थाली में खाना खाये सारा हिन्दुस्तान।

मौलवी और पुजारी करते हैं एक-दूसरे का इस्तकबाल

सूर्य की पहली किरण के साथ जब पुजारी कन्हैया तिवारी मंदिर के बाहर निकलते है तो मस्जिद के मौलवी मोहम्मद मासूम को देख कहते है भाई राम-राम इसके जबाब मे मौलवी मासूम वालेकुम अस्सलाम कहकर आपस मे एक दुसरे का अभिवादन करते है फिर कुशलक्षेम पूछते है। कहना न होगा कि दोनो धर्मस्थलों के बीच महज दस मीटर का फासला है। मंदिर की आधारशिला 1960 में रखी गई वही पांच वर्ष बाद 1965 में मस्जिद का निर्माण हुआ। 62 वर्षों के इतिहास में कभी भी धर्म और मजहब के नाम पर बवाल नही हुआ। यहां दोनों धर्म के लोगों के बीच आस्था को लेकर कभी टकराव नहीं हुआ। गांव में दोनों मजहब के लोगों की समान आबादी है। महत्वपूर्ण बात यह है कि मंदिर-मस्जिद के निर्माण मे यहां के हिन्दूऔर मुसलमान बढचढ एक दूसरे का सहयोग किया। इतना ही नही एक दूसरे के पर्व और सामाजिक आयोजनों में भी दोनों धर्म के लोग आगे बढकर न सिर्फ एक दूसरे का हाथ थाम लेते है बल्कि बढ़चढ़ कर अपनी हिस्सेदारी भी निभाते हैं। यहां के हिन्दू -मुस्लिम एकता और सौहार्द का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राम मंदिर व बाबरी मस्जिद का मुद्दा भी यहां बेअसर साबित होता है। बताया जाता है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ था तब भी इस गांव मे दोनो मजहब के बीच एक-दूसरे के प्रति नफरत की बीज अंकुरित नही हो पायी थी।

कहते हैं मौलवी और पुजारी

मंदिर के पुजारी कन्हैया तिवारी व मस्जिद के मौलवी मोहम्मद मासूम एक दूसरे के सम्मान मे कसदे पढते हुए कहते है एक पास दोनों धर्मों के आस्था स्थल होने से किसी को कोई परेशानी नहीं है। वह बताते है कि जब अजान का समय होता है तो मंदिर का माइक बंद हो जाता है और जब मंदिर में आरती होती है तो मस्जिद से अजान बिना माइक के पढ़ लिया जाता है।

सामाजिक सदभाव का मिसाल है मेरा गांव

गांव के 70 वर्षीय महात्तम मद्धेशिया बताते हैं कि जब मंदिर-मस्जिद बने तब हम किशोर अवस्था मे थे। मंदिर की जब नींव रखी गई तो मुस्लिम भाइयों ने ईंट दी थी। और जब मस्जिद बनी तो हिंदू भाइयों ने सहयोग किया। आज तक कभी भी मंदिर-मस्जिद को लेकर गांव में कोई तनाव नहीं हुआ। वह कहते है इस गांव पर राम-रहीम की रहमत इसी तरह बनी रहे कभी किसी फिरकापरस्त की कुदृष्टि न पडे।

भाईचारे व समरसता की होती है चर्चा

85 वर्षीय शौकत सिद्दीकी की दोनों मजहब के लोग आदर व सम्मान करते है। वह कहते हैं कि मंदिर बनाने की जब योजना बनी तो सबसे पहले वह खुद आगे आकर लोगों से सहयोग मांगा और सहयोग किया। यही काम मस्जिद बनने के समय हिंदू समुदाय के लोगों ने बढचढ किया।

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