हो चुकीं ग़ालिब बलाएँ सब तमाम
एक मरग ए नगहानी और है,,
आज हुकूमत की बदउनवॉनियों की वजह से जो कोहराम है विक़ार रिज़वी भी उसकी भेंट चढ़ गये। अहले लखनऊ के लिए विक़ार रिज़वी का नाम किसी ता’रूफ़ का मोहताज नहीं है। सहाफ़त की दुनिया में आज वह जिस मक़ाम पर थे उसकी पुश्त पर एक तावील जद्द ओ जहद है और जाँफ़िशानि का दौर है।
हमारा ता’रूफ़ अपने-अपने संघर्ष के दौर से है। हमारे कॉमन दोस्त सरदार नक़ी लाल और विक़ार सहाफ़त की दुनिया में अपना मुस्तक़बिल तलाश रहे थे तो हम कोम्पटिशन की तैयारी में मसरूफ़ ए हाल थे। अलग अलग दुनिया में रहते हुए भी विक़ार से हमारा interaction था, जिसके दो कारण थे- पहला क़ौम में दीन की सही मार्फ़त दूसरे क़ौम में तालीमी बेदारी पैदा करना। पहली कोशिश के तयीं तंज़ीम अली कांग्रेस का प्लेटफार्म था तो दूसरे मक़सद को हासिल करने के लिये अंजुमन वज़ीफ़ा ए सादात वा मोमिनीन जैसा इदारा।
बेशक हर नफ़्स को मौत का मज़ा चखना है, लेकिन आज जो मौत का समाँ है उसके लिये हुकूमत ए वक़्त ज़्यादा ज़िम्मेदार है।
जोश के अल्फ़ाज़ में…
“मौत भी कैसी तुम्हारे हाथ की लाई हुई”
मरहूम जावेद मुर्तज़ा की क़यादत में तंज़ीम अली कांग्रेस ने क़ौमियात के हवाले से कई फ़्रंट पर अपनी मुहिम जारी रखी हुई थी। दीन के नाम पर ग़लत आक़ायद, बदअम’ली, ख़ुराफ़ात के ख़िलाफ़ तहरीरी लड़ाई में अवधनामा और सहाफ़त ने “तहरीक” का खुल कर साथ दिया। 2008 के बाद तो हमारे मिशन की ताईद में यह अख़बारात खुल कर सामने आ गये और मज़ामीन, ख़ुतूत, बयानात और मुरासलात को मुनासिब जगह दी। इसके साथ हमारी तहरीक तहफ़ुज़ ए औक़ाफ़ के हवाले से भी खुलकर साथ दिया और मौलवी साहब की तानाशाही और शदीद मुख़ालिफ़त की परवाह नहीं की। अली कांग्रेस ने जब वसीम रिज़वी की मुख़ालिफ़त शुरू की तो इन अख़बारात पर काफ़ी दबाव डाला गया। लेकिन इन्होंने सहाफ़त की रूह से कोई समझौता नहीं किया। वसीम के समर्थन में मौलवी साहब और उनके जिरगे की तरफ़ से हुकूमत वक़्त पर ज़ोर देकर अवधनामा के इश्तिहार बंद कराये गये, FIR करायी गयीं। इन संगीन हालात का विक़ार रिज़वी ने भी डट कर मुक़ाबला किया और आख़िरकार जीत हक़ की हुई।
विक़ार रिज़वी से क़ौम में तालीम की गिरती सूरत ए हाल पर अक्सर बात होती और क़ौम के क़दीमी इदारे अंजुमन वज़ीफ़ा ए सादात व मोमीनीन (अंजुमन) की मीटिंग में बहुत से अमूर पर बातचीत हुई कि किस तरह एक क़ौमी यूनिवर्सिटी का क़याम किया जा सके।
जावेद मुर्तज़ा मरहूम के बाद अली कांग्रेस की कई मीटिंग में वह शरीक हुए और क़ौम में शऊर की बलंदी के हवाले से अपने ख़यालात का इज़हार भी किया, लेकिन वह कुछ नालाँ और मायूस रहते थे। इस सिलसिले से एक बार तफ़सील से बात हुई थी जिसमें बजा तौर पर जावेद भाई के temperament के फ़रामोश किये जाने और “इस्तेबदादी रवैये”पर अफ़सोस ज़ाहिर किया था।
विक़ार रिज़वी एक innovative शख़्सियत के मालिक थे और उनकी एक कोशिश यह भी रही कि हज़रत ए ज़ैनब और इमाम हुसैन की तहरीक के अमली पहलुओं से आम आदमी को मुता’रिफ़ कराया जा सके, इसके लिये उन्होंने बड़े पैमाने पर सेमिनार और इजलास मुनक़िद कराये। इसके अलावा इस क़िस्म के अनेक प्रोग्राम उन्होंने कराये हैं जहां इस्लामी उलूम और अपनी विरासत से पहचान हासिल करते हुए मौजूदा नस्ल फ़ायदा उठा सके।
विक़ार रिज़वी के अख़बार “अवधनामा” से सहाफ़त की दुनिया की कई हस्तियाँ जुड़ी रहीं है, इनमें दो नाम अहम हैं -आलिम नक़वी और ओबैद नासिर। हमारे लिए यह भी फ़ख़्र की बात है कि ओबैद नासिर की एक किताब की रस्म ए इजरा के मौक़े पर बैठकी ग्रूप के एक फरद की हैसियत से हमें भी ख़यालात के इज़हार का मौक़ा दिया गया था।
हक़ीक़त यह है कि विक़ार रिज़वी एक versatile personality के मालिक थे, जिसके कुछ पहलुओं पर हमने चर्चा की है।
वाक़ई विक़ार ख़ुद में एक इदारा थे,, जल्दी चले गये,
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे
क्या ख़ूब क़यामत का है गोया कोई दिन और
असग़र मेहदी
(लेखक वक़ार रिज़वी के बेहद क़रीबी दोस्त हैं)