खत्म हुआ कॉमिक्स का क्रेज, भूल गए बच्चे लूड़ो का खेल

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अवधनामा संवाददाता

ललितपुर। एक समय था जब लोग गर्मियों की छुट्टियों में कॉमिक्स, उपन्यास, सांप सीढ़ी और लूडो में खो जाते थे। हर साल गर्मी की छुट्टियों का इंतजार होता और छुट्टियों से पहले ही बच्चे कॉमिक्स और कहानी की किताबों की सीरीज का जुगाड़ करने लगते। ये कॉमिक्स और किताबें लोग एक दूसरे को पढऩे के बाद दे दिया करते थे। दुकानदार भी कॉमिक्स की सीरीज को अपने यहां संजों कर रखते और इसकी अलग से लाइब्रेरी बनाकर किराए पर दिया करते। कॉमिक्स और कहानियों से जुड़ी किताबें 25 पैसे से 1 रुपए के बीच किराएं पर मिल जाया करती थी। लेकिन बदलते परिवेश में यह चलन से बाहर हो गये। लेकिन हमारे जनपद में आज भी कॉमिक्स के दीवाने देखने को मिल जायेंगे। जनपद ललितपुर के युवा लेखक अभिनव जैन जिनकी लिखी उपन्यास प्रतिहारी कालचक्र का खेल और अंधकार का दैत्य, नायिका अमेजन पर बेस्ट सेलर रही है। इनके पास कॉमिक्स का खजाना है इनकी अलमारी नागराज, सुपर कमांडो धु्रव, बांकेलाल, डोगा, राम-रहीम, चाचा चौधरी और साबू, बिल्लू, पिंकी, फैंटम की कॉमिक्स से भरी हुई है। युवा लेखक अभिनव जैन बताते है कि बचपन में मैं और मेरे भाई वैभव आपस में जेब खर्च को मिलने वाले रुपयों से कॉमिक्स खरीद कर खुद पढ़ते थे और दोस्तो को देते थे। लेकिन आज के दौर के बच्चों का बचपन सोशल मीडिया और मोबाइल में कैद हो गया है। मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस के अधिकारी विकास सैनी कॉमिक्स के दौर को याद करते हुए कहते है कि उस दौर में हम लोगो ने सुनहरा बचपन देखा है। कॉमिक्स के कारण पढ़ाई में भी एकाग्रता आती थी और कॉमिक्स के कारण मित्रो में आपस में प्रेम भाव बना रहता था लेकिन वर्तमान में बच्चों में रचनात्मक सोच की कमी आ रही है। ऑनलाइन अध्ययन के कारण बच्चों का डाटा भी चोरी हो रहा है और वेबसाइट पर गंदे कंटेंट के प्रचारित होने से मन भी दूषित हो रहा है। गौरैया बचाओ अभियान के संचालक युवा लेखक, अधिवक्ता पुष्पेन्द्र सिंह चौहान बताते हैं कि कई बार पापा के सामने भूख हड़ताल पर बैठना पड़ता था, जब पापा कॉमिक्स दिलाते थे और कॉमिक्स पाकर मैं दुनिया का सबसे अमीर बच्चा बन जाता था। वह एक ऐसा दौर जिसमे कॉमिक्स का होना मित्रो में आपका स्टेटस तय करता था। मैं आज भी अपने परिवार के बच्चों को कॉमिक्स पढऩे के लिए प्रेरित करता हूं। जनपद ललितपुर के कॉमिक्स विक्रेता राहुल जैन बताते हैं कि गर्मी आते ही नन्हे-मुन्ने बच्चों के साथ बडे और बूढ़े भी इस मौसम कामिक्स के दीवाने हो जाते थे। मुझे वह का जमाना याद है जब गर्मी का सीजन आते ही हजारों कॉमेंट्स जिसमें डायमंड कि चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी फैंटम, लौथार मिकी माउस, डोनाल्ड, तेनालीराम, अमर चित्रकथा, चंपक, नंदन बालभारती, मधु मुस्कान, चंदा मामा पराग ऐसी अनेक पत्र पत्रिकाएं बच्चों की एवं कॉमिक्स का बाजार लगता था आज कॉमिक्स तो आती है लेकिन उनके दाम इतने अधिक हो गए हैं और इधर बच्चे सोशल मीडिया में सबकुछ मिल जाता है। वहीं दूसरी ओर कीमत अधिक होने से भी भारी फर्क पड़ा है। आज बच्चों को छोटी उम्र में आंख कमजोर होने की वजह से चश्मे लग गए है। रही सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी है इस ढाई वर्षो मै तो छोटी उम्र के बच्चों को माता पिता का मजबूरी मोबाइल दिलाना पडा। आज बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ मनोरंजन मोबाइल के जरिए कर रही है और कॉमिक्स पत्र-पत्रिकाओं का जमाना सिर्फ कहानी किस्सों में रह गया है। बचपन को याद करते हुए अमित लखेरा बताते हैं कि वर्ष 1997 से लेकर बीसवीं सदी बदलने तक के दौर में कॉमिक्स का चलन काफी अधिक हुआ करता था। मैं स्वयं नागराज, डोगा, भोकाल, पिंकी, चाचा चौधरी के अलावा चम्पक जैसी पुस्तकों को पढ़कर मानसिक तनाव को दूर कर लिया करता था। लेकिन अब बच्चे आधुनिकता की चकाचौंध में अपना जीवन टेलीविजन पर डोरेमॉन, नोविता, हनी-बनी और भी कई प्रकार के कार्टून के अलावा मोबाइल में शार्ट वीडियो क्लिप देख रहे हैं, जिससे वह काफी जिद्दी व झगड़ालू किस्म के भी होते जा रहे हैं। अभिभावक अपने बच्चों का भविष्य किस दिशा में ले जा रहे है, यह गहन चिन्तन का विषय है।चाय चुस्की और दोस्ती के सीईओ डॉ.विकास गुप्ता बताते है कि हवा के संग ऊंची उड़ती पतंगें अब बच्चों को रोमांचित नहीं करतीं। न तो अब चाचा चौधरी की चतुर बातें बच्चों को भाती हैं और न ही अब पिंकी की शरारतें पढऩे में बच्चों को मजा आता है। कहीं गर्मियों की छुप्पन छुपाई के लिए अब जगह नहीं बची है तो कहीं सीढ़ी पर चढ़ते चढ़ते अचानक सांप का काट लेना बच्चों को मजा नहीं दे पा रहा है। कैरम के खेल में भी अब लोगों की क्वीन पाने वाली दिलचस्पी कम हुई, वहीं अब चिडय़िा उड़ का खेल भी ऐसे अनंत आकाश में उड़ चला है कि वो अब छठे चौमासे ही दिखता है। कंचे का खेल तो अब लगभग दम ही तोड़ चुका है। ये उन खेलों की यथास्थित है जो कभी बच्चे बच्चे के जहन में स्थित हुआ करते थे। आधुनिकता और वक्त के थपेड़ों ने इन सभी परंपरागत खेलों का ऐसा पोस्टमॉर्टम किया है कि ये अब अपने जमींदोज होने के आधिकारिक ऐलान का इंतजार कर रहे हैं।

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