Waqar Rizvi
हम रोज़मर्रा की जि़न्दगी में इतनी एहतियात बरत्ते हैं कि अगर अपने 4 साल के बच्चे के लिये भी कोई उस्ताद रखते हैं तो हर लम्हें मुतवज्जे रहते हैं कि जिस मक़सद के लिये उस्ताद रखा है वह मक़सद पूरा हो रहा है कि नहीं, अगर नहीं तो फ़ौरन उस्ताद बदल देते हैं ऐसे ही किसी डाक्टर का इलाज उस वक़्त तक करते हैं जब तक उसकी दवा फ़ायदा करे नहीं तो बिना किसी देरी के कोई कमज़ोर ज़हन इंसान भी फ़ौरन से बेशतर डाक्टर बदल देता है फिर मजालिस कोई भी खि़ताब करे यह कैसे हो सकता है क्योंकि यह वह दर्सगाह है जहां हमें वहदानियत, रिसालत, नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, इंसानियत, सिल-ए-रहम, मां बाप की अज़मत, रिश्तेदारों के हुक़ूक, हुक़ूक़े निस्वां की अदायगी और पड़ोसियों के हुक़ूक़ का दर्स मिलता है यहीं से अकि़लयतों को अकसरियत के ज़ुल्म के खि़लाफ़ आवाज़ उठाने का हौसला मिलता है। यही दर्सगाह हमें इल्म की तरफ़ रागि़ब करती है क्योंकि यहां शहर-ए-इल्म और बाबुल इल्म का तस्करा होता है, यहीं से हमें दर्स मिलता है कि साइंस जितनी जितनी तरक़्क़ी करती जायेगी अल्लाह का कलाम उतनी आसानी से समझ में आता जायेगा क्योंकि इस्लाम सिफऱ् अक़ीदे का मज़हब नहीं बल्कि यह दीने-ए-अक़्ल भी है।
जब इन मजालिस में तसकिरा बाबुल इल्म का और दावा भी बाबुल इल्म के मानने का तो सबसे ज़्यादा इल्म भी बाबुल इल्म के मानने वालों के पास ही होना चाहिये, सबसे ज़्यादा यूनीवर्सिटी, कालेज और स्कूल भी बाबुल इल्म के मानने वालों के पास ही होना चाहिये। यह मजालिस अगर जि़क्र हुसैन हैं तो सबसे ज़्यादा हमदर्दी हम में पायी जानी चाहिये क्योंकि इमाम हुसैन ने अपने दुश्मन को ही नहीं उनके जानवरों को भी अपना पानी पिला कर इंसानियत का दर्स दिया और उसको मजबूर कर दिया कि वह जि़ंदगी की तमाम ऐशो आराईश को छोड़कर इमाम हुसैन की तरफ़ आ जायें जहां यक़ीनी मौत से पहले दुश्वार जि़ंदगी भी है। सबसे ज़्यादा इबादतग़ुज़ार भी हमें ही होना चाहिये क्योंकि इमाम हुसैन ने जो एक रात की मोहलत मांगी तो उस पूरी रात इबादत करके बताया कि इबादत की अहमयित क्या है। जनाबे ज़ैनब का वह एक फिख़ऱा कि नंगे सर बाहर निकले या ख़ैमों में जलकर मर जायें क्या हमारी बहनों के लिये हिजाब का दर्स नहीं देता।
अगर यह सारी सिफ़ात हम में पायी जाती है तो तमाम मजालिस करने का कोई मक़सद है क्योंकि ”कर्बला एक दर्सगाहÓÓ ही नहीं ”करबला इंसानसाज़ी का शाहकारÓÓ भी है।
अभी भी वक़्त है आपके शहर में एक से एक उलेमा एक ही वक़्त में मजालिस खि़ताब कर रहे हैं आप अपनी अक़्लों को कुंद न करें, उस पर ज़ोर डालें और वहां जायें जहां आपको कुछ हासिल हो आप आपने मौला के लिये रूसवाई का सबब नहीं बल्कि इज्ज़त-ओ-वक़ार का सबब बनें क्योंकि यह मजालिस सिफऱ् वाह वाह के लिये नहीं बल्कि इमाम हुसैन की उस अज़ीम क़ुरबानी को याद कर उनके मक़सद को बाक़ी रखने के लिये हैं। करबला का एक पैग़ाम यह भी था कि जो हमारी बज़्म में नहीं है उन्हें हम अपनी बज़्म में लाये नाकि अपनी बज़्म में आने वालों के रोकें। ऐसे बने कि मौला कहें कि यह हमारा शिया है।
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