पुलिस की यह गोली अगर तिवारी की जगह अंसारी को लगती ?
पुलिस की यह गोली अगर तिवारी की जगह अंसारी को लगती ? तो क्या होता ? पुलिस को शर्मसार करने के बजाये मीडिया हमको शर्मसार कर रहा होता, दहशतगर्दी की एक और नयी इबारत लिखी गयी होती, अब तक न जाने कितनी नयी दहशतगर्दी तंज़ीमों के नाम उजागर हो गये होते, पुलिस को भी हर तरफ़ से मुबारकबाद मिल रहीं होती और जो पुलिस वाले आज जेल में हैं इन्हीं पुलिस वालों के लिये गोल्ड मेडिल की सिफ़ारिश अब तक कर दी गयी होती और न जाने कितने इनाम और इकराम से नवाज़ने का हर तरफ़ से ऐलान हो रहा होता। यह कोई तसव्वुर नहीं बल्कि माज़ी की वह हक़ीक़त है जिससे हर बशउर शख़्स आशना है क्योंकि उसने देखा है कि न जाने कितने बेकसूर नौजवानों की ज़िंन्दगी पुलिस के हाथों बरबाद हो चुकी है। एक लम्बी फ़ेहरिस्त है ऐसे इनाउंटर की, जिसमें न जाने कितने बुगनाह मार दिये गये होंगें और जो ज़िन्दा पुलिस के हाथों लग गया उसकी ज़िन्दगी मौत से बदतर हो गयी क्योंकि सबसे आसान इल्ज़ाम दहशतगर्दी है जो न सिर्फ़ बेहद संगीन है बल्कि एक फ़र्द नहीं, एक ख़ानदान नहीं बल्कि पूरी क़ौम को शर्मसार भी करता है और यह पुलिस के साथ राजनीति को भी ख़ूब रास आता है, क्योंकि इस इल्ज़ाम में जहां ज़मानत नहीं होती वहीं राजनीति की रोटियां भी ख़ूब सिकती हैं। न जाने कितने हैं जो इस दहशतगर्दी के संगीन इल्ज़ाम में बरसों जेल में रहने के बाद जब बइज्ज़त बरी हुये तो उनका सबकुछ मिट चुका था उस वक़्त उनके लिये मौत ज़िन्दगी से आसान थी क्योंकि बरसों बाद भी पुुलिस अपने ही लगाये आरोपों को तो साबित न कर सकी थी लेकिन मीडिया के ज़रिये उसका चरित्रहरण ऐसा कर चुकी होती है कि समाज में उसको दोबारा वह मोक़ाम मिलना दुश्वार हो जाता है, क्योंकि जब वह कोर्ट से बइज़्ज़त बरी होते हैं तो न वो मीडिया की सुख़ियां बनती हैं और न पुलिस वालों से कोई सवाल होता है। इसकी सबसे बड़ी और ज़िन्दा मिसाल है मलयाना और हाशिमपुरा है जहां 41 मुस्लिम अफ़राद को पुलिस अपनी गाड़ी में बिठा कर ले गयी जिनमें से 39 लोगों की लाशें गाज़ियाबाद के मुरादनगर मे हिडंन नदी में मिली और वह लाशें इसलिये बरामद की जा सकीं क्योंकि उस वक़्त एक निडर, जांबाज़ पुलिस आफ़िसर विभूति नारायण राय ग़ाज़ियाबाद के पुलिस अधीक्षक थे उन्होंनें अपनी जान पर खेल कर सरकार की नाराज़गी मोल लेकर इस केस को उजागर किया। आज का कोई अफ़सर होता तो यह सारी लाशें नदी में ही सड़ गल जाती और किसी को कानों कान ख़बर भी न होती और आज भी उन 41 अफ़राद के घर वाले कहीं उनकी तलाश कर रहे होते। यह जाबांज़ अफ़सर आज भी इस केस को लड़ रहा है और इनकी एक किताब मलयाना और हाशिमपुरा के नाम से दुनियां के बहुत बड़े पब्लिशिंग हाउस ने प्रकाशित की है जो पुलिस को क़रीब से जानना चाहे वह इसे ज़रूर पढ़े। ऐसे ही चन्द अफ़सर हैं जो पुलिस के भ्रम का शायद बाक़ी रखें हैं वरन अपने देश में चोर डाकुओं और क्रिमनल से इतना डर नहीं लगता जितना पुलिस से डर लगता है और डरना भी चाहिये क्योंकि अपनी पुलिस तो ऐसी ही है जैसी आज के तमाम हिन्दी मीडिया ने उसके बारे में रिपोर्टिग की है। इसलिये आज कोई बेगुनाह अगर पुलिस की गिरफ़त में आ जाये तो आप ख़ामोश न रहें क्योंकि कल वह आप भी हो सकते हैं आप जहां हैं वहा से अपना एहतिजाज दर्ज ज़रूर करायें यही पैग़ाम इमाम हुसैन ने कर्बला में भी दिया था कि ज़ालिम के सामने एहतिजाज ज़रूरी है और अज़ादारी इसकी ज़िन्दा अलामत है जो ज़ुल्म के ख़िलाफ़ इमाम हुसैन के उस एक इंकार को याद दिलाती है जिसके सबब कर्बला वजूद में आयी।
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