विलुप्त होते बेजुबानों की सुध, कौन ले रहा है?

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अतुल मालिकराम 

अब तो चुपचाप शाम आती है, पहले चिड़ियों के शोर होते थे. मोहम्मद अल्वी का ये शेर लेख के अंत में समझ आएगा कि यहां क्यों इस्तेमाल किया गया है |
अब तो चुपचाप शाम आती है, पहले चिड़ियों के शोर होते थे. मोहम्मद अल्वी का ये शेर लेख के अंत में समझ आएगा कि यहां क्यों इस्तेमाल किया गया है |
भारत देश इन दिनों हिन्दू मुस्लिम के एक लंबे दौर से गुजर रहा है. सीएए-एनआरसी पर केंद्र सरकार के फैसले के बाद देश, दो भागों में बट गया है, एक इसके पक्ष में और एक खिलाफ में. टीवी डिबेट्स से लेकर चाय के टपरे तक, हर जगह हिन्दू मुस्लिम, मंदिर मस्जिद और शाहीन बाग़ ट्रेंड में बना हुआ है, लेकिन इस देशव्यापी गर्मागर्मी के बीच भारत में रहने वाले पंक्षियों को लेकर एक दर्दनाक खबर सामने आई है, जिस ओर कम ही न्यूज़ प्लेटफॉर्म्स और राजनेताओं का ध्यान गया है |
इस मुद्दे पर अतुल मालिकराम का कहना है कि “शाम का सुकून सिर्फ चिड़ियों की आवाज़ और कबूतर की गुटरगूं में है, अगर हमने अपने पक्षियों को खो दिया तो ‘शामें तो बहुत आएंगी, लेकिन   सुकून कभी लौट कर नहीं आएगा, वह सुकून सिर्फ कहानियों का किस्सा भर रह जाएगा.
कुछ दिनों पहले गांधीनगर में वन्य  जीवों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर आयोजित 13वें सीओपी सम्मेलन में ‘स्टेट ऑफ इंडियाज बर्ड्स रिपोर्ट: 2020’ सामने आई. जिसमें दावा किया गया है कि भारत में पक्षियों की स्थिति बद से बदत्तर होती जा रही है, स्थिति की दयनीयता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जैव विविधता के लिए प्रसिद्ध पश्चिमी घाटों पर साल 2000 से पक्षियों की संख्या में 75 प्रतिशत तक की कमी आई है. रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि गिद्ध, छोटे पंजों वाली स्नेक ईगल, बड़ी कोयल, सामान्य ग्रीन शैंक जैसे पंक्षी लगभग विलुप्त होने की कगार पहुंच गए हैं. वहीं भारत में 79 प्रतिशत पक्षियों की संख्या घटी है |
अब जब रिपोर्ट में कई प्रजातियों के विलुप्त होने की बात कही गई है तो सवाल उठना भी लाजमी है. और ये सवाल किसी एक पर नहीं बल्कि हम सभी पर उठता है. हम सभी मतलब, जीव वैज्ञानिकों से लेकर सरकारी तंत्रों और आम इंसानों तक, जिनकी सुबह चिड़ियों की चहचहाट से होती है. गर्मिया शुरू होने को हैं, और आसमान में उड़ते परिदों की मुश्किलें भी बढ़ने वाली हैं |

पेट में भूंख और कंठ में प्यास लेकर शहरों की छत के चक्कर लगाने वाले पक्षी हो या नदी नालों और जंगलों में अपना बसेरा बसाने वाले बेजुबान, इन दिनों अपनी ही अनुकूल जगह पर घुटन महसूस कर रहे है | लेकिन 137 करोड़ की आबादी में सिर्फ कुछ फीसदी लोग ही ऐसे हैं, जो निजी तौर पर पक्षियों के संरक्षण मं3 योगदान दे रहे है, और ये खुद अपने आप में एक चिंता का विषय है.
हाल में हुए इस संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन, सीओपी-13 में ख़ास बात यह रही कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र  मोदी ने भी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से सम्बोधित किया था. इसलिए ये कहना भी गलत होगा कि इस बात की जानकारी जिम्मेदार नेताओं व सरकारी तंत्रों को नहीं होगी. फिर ऐसी रिपोर्ट्स सामने आने के बाद भी हम भारत में सालों से रह रहे और प्रवास पर आने वाले पक्षियों को लेकर कितना गंभीर हैं, इस पर भी विचार किया जाना जरूरी है? लगातार घटती पक्षियों की संख्या से जीव वैज्ञानिक चिंतित तो हैं लेकिन इसकी मुख्य वजह और इसे रोकने के प्रभावी तरीके शायद ही किसी के पास है. और पक्षियों की इस दयनीय स्थिति को लेकर सरकारी महकमा कितना गंभीर है ये भी एक शोध का ही विषय है.
अंत में इतना ही कहा जा सकता है कि शायद हमें आजादी से चली आ रही हिन्दू मुस्लिम लड़ाई को अब पीछे छोड़ देना चाहिए, और बेजुबानों की घटती संख्या पर गंभीरता अपनानी चाहिए, नहीं तो पहली पंक्ति में इस्तेमाल किया गया मोहम्मद अल्वी का शेर सच होकर हमारी आने वाली पीढ़ी को खूब सताएगा और इसके लिए इतिहास हमें कभी माफ़ नहीं कर पाएगा |

 

 

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