मॉम फिल्म में ऐसा क्या है जो देखे यह फिल्म

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‘इंग्लिश विंग्लिश’ के चार सालों बाद श्रीदेवी मॉम से एक बार फिर रुपहले परदे पर नज़र आ रही हैं. पिछली फिल्म की तरह इस बार भी कहानी महिला प्रधान है. कहानी नयी नहीं है लेकिन विषय सामयिक ज़रूर है. फ़िल्म की कहानी की शुरुआत एक स्कूल से होती है. देवकी (श्रीदेवी) जहां पढ़ाती है. उसकी सौतेली बेटी आर्या (सजल) भी वहां पढ़ती है. वह घर पर भी अपनी माँ को मैम बुलाती है. उसे लगता है कि उसकी मरी हुई माँ को उसके पिता भूल चुके हैं लेकिन वह अपनी ज़िंदगी में देवकी को उनकी जगह नहीं लेने देंगी. सबकुछ ऐसे ही चल रहा होता है कि वैलेंटाइन डे की एक पार्टी में आर्या गैंगरेप का शिकार हो जाती है और सबूतों के अभाव में आरोपी रिहा हो जाते हैं फिर यहां से एक माँ के बदले की कहानी शुरुआत होती है.

गलत और बहुत गलत के बीच में गलत को चुनने का फ़ैसला देवकी लेती है. वह अपनी बेटियों के दोषियों को किस तरह से सजा देती हैं. यही आगे की कहानी है. फ़िल्म की कहानी में नयापन नहीं है. ऐसी कई बदले की कहानियों को हम परदे पर देख चुके हैं हां कहानी का ट्रीटमेंट नया है. यह फ़िल्म एक बार फिर पुरुषों की उस सोच पर सवाल उठाती है. जिसे औरत की ना नहीं सुनना है. औरत जो मामूली होती है वो पुरुषों से कैसे बदला ले सकती है. इस सोच को भी फ़िल्म में दिखाया गया है. फिल्मों में लगातार यही मुद्दे दिखाए जा रहे हैं क्योंकि अब तक हमारा समाज इस सोच से आज़ाद नहीं हुआ है ऐसे में देवकी जैसी माएं हमारे समाज की जरूरत है. यह फ़िल्म कहीं न कहीं इस बात को प्रभावी ढंग से लाती है.

फ़िल्म का विषय अच्छा है लेकिन कहानी पर थोड़ा और काम करने की ज़रूरत महसूस होती है. अभिनय कीबात करें तो इस फ़िल्म में अभिनय से जुड़े कई खास नाम हैं जो उम्मीदों पर पूरी तरह से खरे उतरते हैं. श्रीदेवी इस फ़िल्म में भी हमेशा की तरह बेहतरीन रही हैं. कई दृश्यों को उन्होंने अपने उम्दा परफॉर्मेंस से खास बना दिया है. खासकर जब वह अपनी बेटी आर्या को हॉस्पिटल में देखती हैं. नवाज़ एक बार फिर याद रह जाते हैं. अभिनय के साथ साथ उन्होंने अपने लुक में भी इस बार प्रयोग किया है. अक्षय खन्ना टफ पुलिस वाले की भूमिका में जमे हैं. अभिमन्यु सिंह अपने अभिनय से खुद से नफरत करवाने में कामयाब रहे हैं. सजल अली ने रेप पीड़िता के दर्द को बखूबी जिया है. 

अदनान सिद्दिकी सहित बाकी किरदारों का काम भी अच्छा रहा है. यह फ़िल्म पूरी तरह से श्रीदेवी के इर्द गिर्द बुनी गयी है इसलिए बाकी के किरदारों को फ़िल्म में उतने मौके नहीं मिले हैं यह कहना गलत न होगा. फ़िल्म की सिनेमाटोग्राफी की तारीफ करनी होगी. लाइट के संयोजन से दृश्य खास बन पड़े हैं खासकर जिस तरह से कार में गैंगरेप वाले दृश्य को सड़कों की लाइट के ज़रिए दिखाया गया है. वह दृश्य आपके जेहन में रह जाता है. फ़िल्म की एडिटिंग थोड़ी कमज़ोर है. इंटरवल के बाद फ़िल्म लंबी हो गयी है. फ़िल्म की लंबाई को 15 से 20 मिनट तक कम किया जा सकता था. फ़िल्म का गीत संगीत कहानी के अनुरूप है. कुलमिलाकर कमज़ोर स्क्रिप्ट के बावजूद यह फ़िल्म अपने विषय और बेहतरीन परफॉरमेंस की वजह से याद रह जाती है.


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