भद्रजनों के खेल क्रिकेट और सभ्य समाज में नस्लवाद के लिए भले कोई जगह नहीं है।लेकिन तमाम कोशीशों के बाद भी क्रिकेट के मैदान और बाहर नस्लीय टिप्पणीयां नही रूक रही हैं।कुछ समय पहले इग्लैंड एंड वेल्स क्रिकेट बोर्ड ने माना था कि क्रिकेट नस्लवाद से महरूम नही है और इस लिए उसने निकट भविष्य में इससे निपटने की कसम खायी है।आस्ट्रेलिया के खिलाफ सिडनी के तीसरे टेस्ट के मैच के दौरान भारतीय खिलाड़ियों के खिलाफ की गई नस्ली टिप्पणियों से एक बार फिर ये खेल शर्मसार हो गया है।सिडनी में अतीत में भी खिलाड़ियों को अपशब्दों का सामना करना पड़ा था।सिडनी में जो हुआ वह क्रिकेट इतिहास में हमेंशा नकारात्मक ढ़ंग से याद किया जायेगा।
क्रिकेट तो जेंटलमेंन लोगों का खेल माना ही जाता है,लेकिन कंगारू अपने को उससे अधिक जेंटलमेंन मानते हैं।इस लिए ये हर बार दौरे दर दोरे ये हरकतें और सवाल खड़े करती हैं।आस्ट्रेलिया,इग्लैण्ड और दक्षिण अफ्रीका के खेल में मैदानों में नस्ली टिप्पणियां जरूर सुनाई पड़ती हैं लेकिन इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं।दक्षिण अफ्रीका को तो नस्लवाद के कारण अपनी तमाम क्रिकेट प्रतिभाओं को अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर चमकने से पहले ही खोना पड़ा था।अगर आस्ट्रेलिया कि बात की जाये तो यहां प्रश्न यह भी उठता है कि आस्ट्रेलिया में भारतीयों के प्रति यह घृणा भाव क्यों है? केवल रंग के कारण या फिर उस देश में बसे हिंदुस्तानियों की प्रतिभा और आर्थिक समपन्नता के कारण?वैसे आस्ट्रेलिया में नस्लभेद कोई नई बात नहीं है।वहां यह दो तरह का नस्लवाद है।पहला तो उन देशज आदिवासियों के प्रति है,जो आस्ट्रेलिया के मूल निवासी हैं। ये लोग आस्ट्रेलिया महाद्वीप और उससे लगे द्वीपों में 65 हजार साल से भी ज्यादा समय से रहते आए हैं।लेकिन आज पूरी तरह गोरो के रहमो करम पर हैं।कारण कि एक अंग्रेज कैप्टन जेम्स कुक ने 1770 में पूर्वी आस्ट्रेलिया पहुंच कर उस पर अपना अधिकार घोषित कर दिया।धीरे-धीरे अंग्रेजों ने पूरे आस्ट्रेलिया पर ही कब्जा कर लिया।मूल आदिवासी अपने घेरों में सिमट कर रह गए।इनमें बहुतों को ईसाई बना लिया गया।हालांकि आस्ट्रेलिया में नस्लभेदी विरोधी कानून लागू हैं, लेकिन व्यवहार में उसका असर कम ही दिखाई देता है।वहां के मूल निवासी आज भी अपने हकों और पहचान के लिए लड़ रहे हैं। गोरों के मन में उनके हिकारत का भाव है।जहां तक भारतीयों का सवाल है तो भारतीय आस्टेलियाई उस देश में दूसरा सबसे बड़ा आप्रवासी समुदाय है।उनकी संख्या करीब 6 लाख से कहीं अधिक है,और हर साल एक फीसदी की दर से बढ़ भी रही है।ज्यादातर भारतीय अपनी योग्यता और मेहनत के कारण आसट्रेलिया में अमिरों के वर्ग में हैं।आस्ट्रेलिया-भारत के बीच मैच में इनमें से ज्यादातर का सर्मथन भारतीय टीम की ओर रहता है।वहां रह रहे देशवासियों से बातचीत से पता चलता हे कि अब तो भारतीयों का आस्ट्रेलिया के हर क्षेत्र में दखल है,जिसमें सियासत भी शामिल है।हो सकता है कि भारतीयों की कंगारू देश में यह तरक्की भी नस्लभेदी मानसिकता का कारण हो।अच्छी बात यह है कि प्रशासन के स्तर पर इस तरह के नस्लवाद के खिलाफ कार्रवाई समय समय पर होती रहती है।तीन दशक पहले नस्लभेद के कारण दुनिया के अधिकांश देश दक्षिण अफ्रीका की टीम के साथ नहीं खेलते थे।वहां नस्लभेद कानूनी तौर पर खत्म होने के बाद दक्षिण अफ्रीकी टीम का बहिष्कार भी समाप्त हुआ।लेकिन वो मानसिकता अभी खत्म नहीं हुई है और वहां अक्सर अश्वेत खिलाड़ियों को इससे दो चार होना पड़ता है।महान बल्लेबाज क्रिस गेल और डेरेन सैमी भी पूर्व में नस्लीय भेदभाव का आरोप लगा चुकें हैं।यही नही इग्लैंड में क्लब और काउंटी किक्रेट खेलने वाले पाकिस्तानी खिलाड़ियों को भी गोरे और काले के भेद का सामना करना पड़ा है।हाल में ही एक पाकिस्तानी क्रिकेटर ने इस तरह का आरोप लगाया था।खेल का मैदान एक बानगी जरूर हो सकता है,लेकिन तमाम घटनाएं बताती हैं कि नस्वाद समाज में गहरे तक पिरोया हुआ है।न्यूजीलैंड की मस्जिद पर हमला भी नस्लवाद की ही देन था।दुनिया को लोकतंत्र और बराबरी के हक़ का पाठ पढ़ाने वाले अमेरिका में पिछले साल अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की मौत कौन भूल सकता है।जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद अमेरिका में जिस तरह के हालात थे वो 60 के दशक के अमेरिका की याद दिला रहे हैं।अश्वेत अमेरिकियों के साथ होने वाले बर्ताव के खिलाफ आखिरी बार इतने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन 50 साल पहले हुआ था।फ्रीकन अमेरिकन या फिर अश्वेत अमेरिकन के अधिकारों की ये जो लड़ाई है।उसकी तह तक जाना ज़रूरी है।ये लड़ाई दरअसल स्लेवरी यानी गुलामी के इतिहास से शुरू होती है।अमेरिका में 16वीं सदी में काफी बड़ी तादाद में अफ्रीकियों को लाकर उनसे गुलामी करवाई जाती थी।अमेरिका में ये गुलामी प्रथा करीब 370 सालों तक जारी रही।अट्ठारवीं सदी में अमेरिका की आज़ादी के बाद भी इन गुलामों को आज़ादी नहीं मिली और गुलामी का ये मुद्दा धीरे धीरे नासूर बनने लगा।नतीजतन 1861 में अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ गया।जिसके बाद 1865 में अमेरिकी संसद में एक कानून पारित किया गया।जिसमें गुलामी प्रथा को हमेशा के लिए खत्म कर दिया गया।कानून पारित होते ही 40 लाख अफ्रीकन अमेरिकन लोगों को गुलामी से आज़ाद कर दिया गया।लेकिन अफ्रीकी अमेरिकियों को बराबरी का दर्जा दिए जाने के करीब डेढ़ सौ साल बाद भी वो सम्मान कभी नही मिला जिसके वह असल में हकदार थे।हांलाकि ऐसा नही है कि इस दौरान अश्वेतों को मुख्य धारा में शामिल करने की कोशिश नही हुई।कई बड़े नेता और समाज सेवी संगठनों ने सालों संघर्ष किए मगर नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात निकला।वहीं आस्ट्रेलिया में भी नस्लवाद की लम्बी परम्परा है।आपको याद होगा कि दस साल पहले आस्ट्रेलिया में भारतीयमूल के लोगों पर हमलों का लम्बा सिलसिला चला था।एक साल में डेढ़ हजार लोगों पर हमला हुआ था।दरअसल 1901 में आस्ट्रिलिया में इमिग्रेशन रेस्ट्रिक्शन एक्ट पारित किया गया।इस अधिनियम को आस्ट्रेलिया संसद में भारी बहुमत प्राप्त हुआ।लेकिन इससे पहले ही नस्लवादी नीतियां प्रचलन में आ गई थीं यह नस्लवादी कानून 50 वर्षों तक कायम रहा,यानी दूसरे महायुद्ध के अंत तक।इस युद्ध में यूरोप लगभग तबाह हो गया। ब्रिटन, जर्मनी, फ्रांस,इटली,रूस और बेल्जियम आदि देशों के करोड़ों नागरिक युद्ध में मारे गए।इन देशों की फैक्टरियां, पुल,इमारतें,आदि संपत्तियां भी लगभग पूरी-पूरी नष्ट हो गईं।इन देशों को अब इन सबको दुबारा नए सिरे से निर्मित करने की आवश्यकता हुई।उधर आस्ट्रेलिया जाकर बसने के लिए तैयार यूरोपीय मूल के लोग मिलने बंद हो गए। इससे आस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था,खास करके ग्रामीण अर्थव्यस्था बुरी तरह प्रभावित होने लगी।खेत में काम करनेवाले लोगों की किल्लत हो गई। तब झक मारकर आस्ट्रेलिया को अपने नस्लवादी कानून को ताक पर रखना पड़ा। यह काम अत्यंत धीरे-धीरे ही किया गया।आधी शती तक आस्ट्रेलिया पर हावी रही नस्लवादी व्यवस्था ने वहां के गोरों की मानसिकता में गहरी पैठ कर ली है,और आज भी कई आस्ट्रिलाई साफतौर पर नस्लवादी रुझान रखते हैं।यह अनेक छोटी-मोटी घटनाओं से जाहिर होती रहती है।यही रूझान हमें भारतीय टीम के आस्ट्रेलिया दौरों पर मैदान के बाहर और भीतर दिख जाता है।ईयान चैपल जैसे खिलाड़ी ने भी कभी भारतीय खिलाड़ियों के लिए अस्वीकार शब्दों का प्रयोग किया था। हम भारतीय घटनाओं को भूलने वाले हैं तभी उनके छोटे भाई ग्रेग चेपल को हिंदुस्तानी क्रिकेट टीम का मुख्य कोच बना देतें हैं और फिर वह मनमानी पर उतारू हो कर इरफान पठान जैसे खिलाड़ियों की प्रतिभा को ही समाप्त कर देतें हैं। साल 2018 के दौरे के दौरान आस्ट्रेलियायी कमेंट्रेटर केरी ओकीफी ने भी भारतीय खिलाड़ियों के खिलाफ टिप्पणी की थी,हांलाकि बाद में उनहोने माफी मांग ली थी।आर अश्विन और हरभजन सिंह ने भी कंगारू देश में अपने ऊपर नस्लीय टिपप्णी के आरोप लगायें हैं।यूं तो नस्लभेद के चलते दुनिया को बड़ा नुकसान झेलना पड़ा है। बीते दो महायुद्धों में 65 लाख से ज्यादा लोगों की हत्याओं के पीछे भयंकर नस्लभेद कानून और इस के अगुआ यूरोपीय देशों के गोरे शासक ही थे।मानवता के खिलाफ घृणा का डंक खुद भारत ने बहुत झेला है।विश्वभर में फैल रही धार्मिक,नस्लीय सोच केवल अल्पसंख्यकों,अश्वेतों या स्त्रियों के लिए खतरा नहीं है,वह समस्त समाज और मानवता के लिए खतरा है।वह आजादी,बराबरी और बंधुत्व के संवैधानिक अधिकारों और समाज के दबेकुचले वर्गों की तरक्की के लिए उठाए गए कदमों के लिए भी उतना ही बड़ा खतरा है।नस्लभेद एक ऐसी खामी है,जो इंसानी समाज का पीछा नहीं छोड़ रही है।दुनिया में एक समय रंग के आधार पर इंसानों की खरीद-फरोख्त से लेकर आज अमेरिका में उठते नस्लवादी जुमलों तक अनेक ऐसे स्याह पहलू हैं,जो न केवल तकलीफदेह,बल्कि शमर्नाक हैं।भले ही 17वीं सदी से एक नस्लीय विज्ञान खड़ा करने की कोशिश हुई है,जिसके तहत किसी नस्ल को रंग के आधार पर श्रेष्ठ,तो किसी को कमतर बताने का प्रयास रहा है।लेकिन धीरे-धीरे यह सिद्ध होता गया है कि इंसानों के बीच कोई खास फर्क नहीं है।रंग के आधार पर किसी नस्ल को कमतर या उच्च नहीं बताया जा सकता।त्वचा के रंग की विविधता पर कुछ समय पहले एक ऐतिहासिक अध्ययन सामने आया है। इस के मुताबिक अफ्रीकी मूल के लोगों के एक बडे़ हिस्से में जीन में ऐसे बदलाव हुए,जो उनकी त्वचा के रंग के लिए जिम्मेदार हैं।साइंस जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक दो जीन,एचईआरसी 2 और ओसीए 2, यूरोपीयों की हल्की त्वचा,आंखों और बालों से जुड़े हैं।दरअसल अफ्रीका एक ऐसा देश है,जहां हर रंग के लोग पाए जाते हैं।इस लिए ये नहीं कहा जा सकता कि रंग के आधार पर उनमें कोई किसी से बेहतर या कमतर है।पिछली सदी के पहले दशक के अमेरिकी मानव विज्ञानी सैमुअल जॉर्ज मॉर्टन की ये थ्योरी कि श्वेत लोगों की खोपड़ी बड़ी होती है और इसीलिए वे अव्वल होते हैं,को भी तमाम अनुसंधानों में खारिज किया जा चुका है।यही नही लगभग सभी धर्मों की किताबों में लिखा है कि ईश्वर इंसानों में कोई भेद नही करता है,वह सब को समान ताकतें देता है।वैज्ञानिक यह मानते रहे हैं कि दुनिया में करीब 63 नस्ल के इंसान रहते हैं, लेकिन श्रेष्ठता नस्ल से तय नहीं होती।साल 1990 से 2003 के बीच हुए डीएनए अनुसंधान के तहत ये पाया गया कि सभी मानव समान हैं,उनमें असाधारण रूप से बहुत समानता है।यही नही वैज्ञानिक बौद्धिक आधार पर भी नस्लभेद को खारिज कर चुके हैं।जाहिर है कि अगर हर गोरे काले की एक तरह से परवरिश,शिक्षा और समान माहौल मिले,तो ऐसा कोई कारण नही है कि इंसानों के बीच कोई नस्लीय भेदभाव मिले।यही नही रंग-रूप एक इर्श्वरीय प्रक्रिया मात्र है तो कोई तुक नहीं कि नस्लवाद को जारी रखा जाए।आज एक टच पर दौड़ती भागती दुनियां के इस दौर में ये बात गोरों को अब समझ में आ जानी चाहिए।
शाहिद नकवी