एस एन वर्मा
चुनाव आयोग की स्वतंत्रता और चुनावी प्रक्रिया की शुद्धता के लिये संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 324 के माध्यम से संसद से अपेक्षा थी कि वे कानून बनायेगे। कानून के द्वारा मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों के लिये चयन प्रक्रिया और उनके अधिकारो को कानून में समाहित करेगे। 2015 में ला कमीशन ने प्रधानमंत्री नेता प्रतिपक्ष, और मुख्य न्यायधीश के सदस्यता वाली एक समिति बनाने की सिफारिश की थी। इससे पहले 1990 में इसे लेकर राज्य सभा में संविधान संशोधन विघेयक पेश किया गया था। विघेयक चार साल तक ज्यों का त्यों पड़ा रहा फिर उसे वापस ले लिया गया।
सरकार का इस विषय में दिलचस्पी न दिखाना इंगित करता है सरकारों का इस सम्बन्ध में कानून न बनाने में जानबूझ कर दिलस्पी नहीं ली जा रही है। अब सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त के चुनने के लिये महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है लोकतंत्र की ताकत नागरिक है, मतपत्र की ताकत सबसे ऊपर है। आयोग की पूर्ण स्वतन्त्रता के लिये चुनावी प्रक्रिया की शुद्धता के लिये भी जरूरी है। चुनाव कमीशन, मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों को कार्यपालिका के हस्तक्षेप से स्वतंन्त्र रहने के लिये सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुझाव के प्रस्ताव को कानून सम्मत बनाना जरूरी है।
फिलहाल इन्हीं सब मुद्दों को ध्यान में रखते हुये सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने एक मत से फैसला दिया है कि चुनाव आयोग, मुख्य चुनाव आयुक्त, चुनाव आयुक्तो का चुनाव प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, यदि नेता प्रतिपक्ष न हो तो सदन में सबसे बड़ी पार्टी के नेता और सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायधीश की सलाह पर चुने जाये। पीठ ने एकमत से यह फैसला दे फैसले के महत्व को रखांकित किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा सरकारों ने इस दिशा में कानून बनाने के लिये कोई पहल नहीं की।
इधर देखने में आ रहा है सरकार न्यायपालिका लेकर कुछ टिप्पणियां की है जो न्यायपालिका के क्षेत्र में ठीक नहीं लगता न्यायपालिका कार्यपालिका विघायिका सभी कार्य संविधान में स्पष्ट है फिर यह विवाद क्यों। अभी तक आयोग और उनके पदाधिकारी सरकार मंत्रालय द्वारा सुझाये नामों के अनुसार बनाये जा रहे है। इसमें एक ब्यूरोक्रेट आज रिटायर होता है कल मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्त बना दिया जाता है। ब्यूरोक्रेट के लिये कोई कूलिगं अवधि ही निर्धारित है। ऐसे में मुख्य आयुक्त या आयुक्त पद पर आये ब्यूरोक्रेट से पूर्ण निष्पक्षता की उम्मीद धूमिल पड़ जाती है। ऐसे आयुक्त का सुझाव सरकार की तरफ होना स्वाभाविक है। सभी शेषन नहीं हो सकते।
सुप्रीम कोर्ट ने फैमले में दूरदार्शिता दिखतो हुये सही निणर्य लिया है। आयोग को पैसे के लिया सरकार पर निर्भर नहीं रहना पड़े। कोर्ट ने कहा आयोग के लिये अलग बजट और स्वतन्त्र व्यवस्था का इन्तजाम किया जाना चाहिये। यह प्रक्रिया पूरी तरह लागू होने वाद पता चलेगा। यह कितना असरदार साबित हो रहा है। आयोग के पास आवश्यक अधिकार होने चाहिये जिसके द्वारा वह अनावश्यक घुसपैठ पर लगाम लगा सके। आयोग की कानून सम्भ्मत बाते न माननेवलो के खिलाफ कार्यवाही भी कर सके। इस फैसले से दूरगामी अनुकूल परिणाम आने तय है। यह फैसला इस दिशा में मील का पत्थर साबित होगा।
अन्त में सवाल उठता है संसद नियम बनाने के लिये है, कोर्ट उन कानूनों की व्याख्या करने के लिये है। मुजरिम को सजा सुनाने के लिये है फिर सरकार कानून बनाने से परहेज क्यों कर रही है। कहा जाता है सरकार का दूसरी संस्थाओं में जितनी ही कम घुसपैठ होगी लोकतन्त्र उतना ही मजबूत होगा। लोकतन्त्र की यही आदर्श स्थिति मानी जाती है।