एस. एन. वर्मा
विपक्ष भी जनता के चुने हुये प्रतिनिधि है सरकारी पक्ष भी जनता के चुने प्रतिनिधि है। जनता के चुने प्रतिनिधियों ने जो कानून नियम बनाये है। जो संस्थायें बनाये है उनके उपयोग पर इतना हो हल्ला क्यों। सही बात तो वह होती कि विपक्ष सरकारी पक्ष से असन्तुष्ट है तो उसे जनता के सामने जाना चाहिये। सरकार को बदलने की कोशिश मतदाताओं को ज़रिये करानी चाहिये। पर संघर्ष का रास्ता छोड़ आराम का रास्ता है कोर्ट में चले जाना। एजेन्सियों के दुरूपयोग के खिलाफ 14 विपक्षी दलों ने केन्द्रीय एजेन्सियों के दुरूपयोग को लेकर कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। पर कोर्ट ने इसे सुनवाई योग्य नहीं माना। कोर्ट ने याचिका कर्ताओ से सही सवाल किया है आप केन्द्रीय एजेन्सियों के दुरूपयोग का आरोप लगा रहे है। यह भी कह रहे है नेताओं के लिये अलग व्योहार नहीं चाहते क्योकि वे भी सामान्य नागरिक है। फिर अदालत केन्द्रीय एजेंन्सियों को यह निर्देश कैसे दे सकती है कि नेताओं के गिरफ्तारी के पहले कोई खास प्रक्रिया अपनायें।
सच बात तो यह है कानून सबके लिये बराबर होता है इसलिये खास के लिये खास व्योहार या औपचारिकता तो कानून की दृष्टि से किसी भी कोने से सही नहीं उतरती है। यह भी आरोप लगाया गया है कि 2004 से 2014 के बीच सीबीआई ने जितने नेताओं को जांच की उनमें 60 प्रतिशत विपक्ष के थे। इस अवधि में यह बढ़कर 95 प्रतिशत पर पहुंच गया है। याचिकर्ताओं की कहना यह भी कहना है कि इस तरह के मामालों में दोष बहुत कम ही साबित होते है। उनका इशारा उत्पीडन की ओर है। पर चूकि भारत में लोकतन्त्र सही दिशा में चल रहा है इसलिये इस तरह के मामले तो कम ज्यादा हर सरकार में आते रहे है और आरोप लगते रहे है। कुछ के दोष सिद्ध भी हुये है। चाहे प्रतिशत कितना भी कम हो। अगर केन्द्रीय एजेन्सियों का अंकुश नहीं रहेगा तो नौकरशाह, नेता निरंकुश हो जायेगे।
लोकतन्त्र में अगर नेता चुनी हुई सरकार के प्रति शिकायतें लेकर कोर्ट जायेगे तो नेता जिनके बल पर बने है, मोटी सहूलियते, वेतन, पेन्शन पा रहे है उनके प्रति अविशसी चुनाव जीतने के बाद क्यों हो जाते है। वे चुनी सरकार के खिलाफ की शिकायते तथा कथित अन्याय और दुरूपयोग का मसला लेकर जनता के बीच क्यों नहीं जाते। क्या उनमे ंआत्मविश्वास नहीं है कि जनता उनकी बात मानेगी। अगर जनता उनकी बात नही मानेगी तो वो चुनाव जीतने की उम्मीद कैसे कर सकते है। जनमत के आगे तो बड़े में बड़े तानाशाह बड़ी से बड़ी सरकारे झुकती आई है। अगर कोई नेता गलत नही हैै तो एजेन्सियों जबरदस्ती तो दोष उन पर नही थोप देगी। अगर वे गलत दोषारोपण करती है तो कोर्ट है। नेतागिरी सेवा और संघर्ष का नाम है। अगर नेता इनसे बचकर एसी में बैठ कर लड़ाई लड़गे तो वे लोकतन्त्र का अहित करेगे। इसलिये नेताओं को अपनी शैली बदलाव आना चाहिये। लोकतन्त्र के हित में।