एस. एन. लाल
यह घटना 570 ई. की है जब अरब की सरज़मीं पर दरिन्दगी अपनी चरम सीमा पर थी। तब ईश्वर ने एक संदेशवाहक (पैग़म्बर) भेजा, जिसने अरब की ज़मीन को दरिन्दगी से निजात दिलाई और निराकार ईश्वर (अल्लाह) का परिचय देने के बाद मनुष्यों को ईश्वर का संदेश पहुंचाया, जोकि अल्लाह का ‘दीन’ है इसको इस्लाम का नाम दिया गया और ‘दीन’ केवल मुसलमानों के लिए नहीं आया, वह सभी के लिए था क्योंकि बुनियादी रूप से दीन (इस्लाम) में अच्छे कार्यों का मार्गदर्शन किया गया है और बुरे कार्यों से बचने व रोकने के तरीके बताये गये हैं। जब दीन (इस्लाम) को मोहम्मद(स.व.अ.) साहब ने फैलाना शुरू किया, तब अरब के लगभग सभी कबीलों ने मोहम्मद(स.व.अ.) की बात मानकर अल्लाह का दीन कबूल कर लिया। मोहम्मद(स.व.अ.) के साथ मिले कबीलों की तादाद देखकर उस समय मोहम्मद (स.अ.स.) के दुश्मन भी मोहम्मद साहब के साथ आ मिले (कुछ दिखावे में और कुछ ने डर से) लेकिन वह मोहम्मद(स.व.अ.) से अपने दिलों में दुश्मनी रखे रहे। मोहम्मद(स.व.अ.) का आठ जून 632 ई. को इन्तेक़ाल (देहान्त) हुआ। मोहम्मद(स.व.अ.) के इन्तेक़ाल के दो माह बाद ही दुश्मनों ने उनकी बेटी फातिमा ज़हरा(अ.स.) के घर पर हमला किया, जिससे घर का दरवाज़ा टूटकर फातिमा ज़हरा(अ.स.) पर गिरा और 28 अगस्त, 632 ई. को वह इस दुनिया से चली गयीं। फिर कई वर्षों बाद 29 जनवरी, 661 ई. में दुश्मनों को मौक़ा मिलते ही मस्जिद में नमाज़ पढ़ते समय मोहम्मद(स.व.अ.) के दामाद हज़रत अली(अ.स.) के सिर पर तलवार मार कर उन्हें शहीद कर दिया। उसके बाद दुश्मनों ने मोहम्मद(स.व.अ.) के बड़े नाती इमाम हसन(अ.स.) को ज़हर देकर शहीद किया। दुश्मन मोहम्मद(स.व.अ.) के पूरे परिवार को खत्म करना चाहते थे, इसीलिए उसके बाद मोहम्मद(स.व.अ.) के छोटे नाती इमाम हुसैन(अ.स.) पर दुश्मन दबाव बनाने लगे कि इमाम हुसैन(अ.स.) उस समय के जबरन बने खलीफा ‘यज़ीद’ (जोेकि नाममात्र का मुसलमान था) का हर हुक्म मानें और ‘यज़ीद’ को खलीफा कबूल करें। यज़ीद जो कहे उसे इस्लाम में शामिल करें और जो वह इस्लाम से हटाने को कहे वह इस्लाम से हटा दें यानि मोहम्मद(स.व.अ.) के बनाये हुए दीन ‘इस्लाम’ को बदल दें। इमाम हुसैन(अ.स.) पर दबाव इसलिए था क्योंकि वह मोहम्मद(स.व.अ.) के चहेते नाती थे। इमाम हुसैन(अ.स.)के बारे में मोहम्मद(स.व.अ.) ने कहा था ‘‘हुसैन- ओ-मिन्नी वा अना मिनल हुसैन’’ हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से यानि जिसने हुसैन को दुःख दिया उसने मुझे दुःख दिया’’। मगर दिखावा करने वाले मुसलमान मोहम्मद(स.व.अ.) की इस बात को भूल चुके थे।
उस समय का बना हुआ खलीफा यज़ीद चाहता था कि हुसैन(अ.स.) उसके साथ हो जायें, वह जानता था अगर हुसैन(अ.स.) उसके साथ आ गये तो सारा इस्लाम उसकी मुट्ठी में होगा। लाख दबाव के बाद भी इमाम हुसैन(अ.स.) ने यज़ीद की बात मानने से इन्कार कर दिया, तो यज़ीद ने इमाम को क़त्ल करने की योजना बनायी। 4 मई 680 ई0 में इमाम हुसैन(अ.स.) ने मदीने में अपना घर छोड़कर शहर मक्के पहुंचे जहां उनका हज करने का इरादा था लेकिन उनको पता चला दुश्मन हाजियों के भेष में आकर उनको क़त्ल कर सकता है। इमाम हुसैन(अ.स.) ये नही चाहते थे कि काबा जैसे पाक जगह पर खून बहे, फिर इमाम हुसैन(अ.स.) ने हज का इरादा बदल दिया और शहर कूफे की ओर चल दिये। रास्ते में दुश्मनों की फौज उन्हें घेर कर करबला ले आयी। जब यज़ीद की फौज ने इमाम हुसैन(अ.स.)को घेरा था उस समय दुश्मन की फौज बहुत प्यासी थी, इमाम ने यज़ीद की फौज को पहले पानी पिलवाया, यह देखकर यज़ीदी फौज के सरदार ‘हज़रत हुर्र’ पर बहुत ही गहरा असर हुआ। हज़रत हुर्र 10 मोहर्रम की सुबह अपने परिवार के साथ इमाम से आ मिले थे। इमाम हुसैन(अ.स.)ने करबला में जिस ज़मीन पर अपने खेमे (तम्बू) लगाये उस ज़़मीन को पहले हुसैन (अ.स.) ने खरीदा फिर उस स्थान पर अपने खेमे लगाये।
यज़ीद अपने सरदारों के द्वारा लगातार इमाम हुसैन(अ.स.) पर दबाव बनाता गया कि इमाम हुसैन(अ.स.) उसकी बात मान ले, जब इमाम हुसैन(अ.स.) ने यज़ीद की शर्ते नही मानी तो दुश्मनों ने अन्त में नहर पर फौज का पहरा लगा दिया और हुसैन(अ.स.) के खेमांे में पानी जाने पर रोक लगा दी गयी। तीन दिन गुज़र जाने के बाद जब इमाम के परिवार के बच्चे प्यास से तड़पने लगे – तो इमाम हुसैन(अ.स.) ने यज़ीदी फौज से पानी मांगा तो यज़ीदी फौज ने पानी देने से मनाकर दिया, यज़ीदी फौज ने सोचा हुसैन(अ.स.) प्यास से टूट जायेगें और हमारे खलीफा यज़ीद की सारी शर्ते मान लेंगे। जब इमाम हुसैन(अ.स.) तीन दिन की प्यासे रहने के बाद भी यज़ीद की ”ार्ते नहीं मानी, तो यज़ीदी फौज ने हुसैन(अ.स.) के खेमों पर हमले शुरू कर दिये, तो इमाम हुसैन(अ.स.) ने दुश्मनों से एक रात का समय मांगा और उस पूरी रात इमाम हुसैन(अ.स.) और उनके परिवार ने अल्लाह (ईश्वर) की इबादत की और दुआ मांगते रहे, ‘‘मेरा परिवार, मेरे दोस्त चाहे शहीद हो जाये लेकिन अल्लाह का दीन ‘इस्लाम’ जोकि नाना(मोहम्मदस.व.अ.’) लेकर आये थें, वह बचा रहे।’’
10 अक्टूबर 680 ई0 को सुबह नमाज़ के समय से ही जंग छिड़ गयी- जंग तो कहना ठीक न होगा, क्योंकि एक ओर लाखों की फौज थी, दूसरी तरफ चन्द परिवार और उनमें कुछ मर्द लेकिन इतिहासकार इसे जंग ही लिखते हैं। वैसे इमाम हुसैन(अ.स.) के साथ केवल 107 मर्द थे जिसमें छः महीने से लेकर 13 साल तक के बच्चे भी शामिल थे। इस्लाम की बुनियाद बचाने में 72 लोग तो सिर्फ कर्बला में शहीद हो गये, जिनमें दुश्मनों ने छः महीने के बच्चे अली असग़र के गले पर तीन नोंक वाला तीर मारा, 13 साल के बच्चे हज़रत क़ासिम को ज़िन्दा रहते घोड़ों की टापों से रौंद डाला तथा नौ व 10 साल के बच्चों औन-मोहम्मद के सिरों पर तलवार मारकर शहीद कर दिया। इमाम हुसैन(अ.स.) की शहादत के बाद दुश्मनों ने इमाम के खेमे भी जला दिये और मोहम्मद(स.व.अ.) के घर की औरतों, बीमार मर्दों व बच्चों को क़ैदी बना लिया और फिर ये काफिला कर्बला से दमिश्क गया लेकिन इस बीच रास्ते में इसे 19 जगह तमाशे की तरह पेश किया गया और जहॉं-जहॉं लोगों को यह मालूम हो गया कि यह कैदी मोहम्मद(स.व.अ.)के घरवाले हैं तो लोगों ने फौज पर पत्थर फेंके और यज़ीद को बुरा-भला कहा। यज़ीद ने मोहम्मद(स.व.अ.)के घर के लोगों को सालभर कैदी बना कर रखा। कैदखानों के ज़ुल्म और काफिले की तक़लीफों को बहुत से बच्चे बर्दाश्त न कर सके और उनका इन्तेक़ाल हो गया। अज़ादारी करने वालों का मानना है कि इमाम ने अपनी शहादत देकर अपने नाना मोहम्मद(स.व.अ.) का दीन ‘इस्लाम’ बचाया जोकि आज भी जिन्दा है। जो लोग अज़ादारी (मोहर्रम) मनाते हैं वह इमाम हुसैन(अ.स.) की वह कुर्बानी की याद मनाते हैं जोकि ज़ुल्म के खिलाफ और इन्सानियत की हिफाज़त के लिए दी थी। तभी मौलना शाह अब्दुल अज़ीज़(रह0) देहलवी ने अपनी किताब ‘सीरुल शहादते‘ में फर्माया है ‘‘हज्रेत इमाम हुसैन(अ.स.) की शहादत से आनहज़्रत (मोहम्मद(स.व.अ.)) को शहादत का दर्जा हासिल हुआ और आपकी कमालाते नबुवत पूरी हुई।’’
(‘अज़ादारी और अवध’ किताब से)