खंडहर क्या है?

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हफ़ीज़ किदवाई

एक लफ्ज़ है खंडहर, जिसमें कितने ही अल्फ़ाज़ गूंथे हैं। कितना कुछ है जो यह एक अकेला लफ़्ज़ निगल गया। जब किसी ने एक ख़्वाब देखा होगा कि हम यहाँ अपनी दहलीज़ बनाएंगे। वह दहलीज़ जिसकी पीठ पर एक मुस्कुराता सा घर होगा। उसमें मेहराबें,दर ओ दीवार, ताखें और उन ताखों में रखे चराग़, बेजान दीवारों को सांस बख्शेंगे।

बरामदे में पड़े तख़्त पर कोई आवाज़ देगा, अरे ठहर जाओ, दम लो ज़रा, मेरे नज़दीक तो आओ। क्या बूढ़े लोगों से साय काटते हैं क्या और तुम खिसियाकर कहोगे, नही नही,बस आप ही के पास आ रहे थे। आँगन से कोई हमउम्र इशारा करेगा, अरे यार,
पिछली खिड़की से पार हो लो, वरना लम्बा फँसाएंगी।

अजीब कशमकश, एक तरफ़ दिल है कि बाहर जाने को बेताब, पैर हैं कि बुज़ुर्गों की आवाज़ में बंधे चले जा रहे। मैं बड़ी कोशिश करता हूँ इनसे निकलने की, अपने आँगन की यादों और नए आसमान के बीच एक डोर बनने की मगर फिर कोई फूहड़ों की तरह कह देता है, कहाँ फंसे हो खंडहरों में।

कौन बताए कि यार यह खंडहर नही हैं । यह तमाम दस्तानों का कब्रिस्तान नही हैं। अरे इसमें मुझे पानदान उठाए कोई दिखता है, तो कोई चाय की प्याली लिए खड़ा मिलता है। कोई कंधे पर हाथ रखकर दुआएँ देता निकल जाता है, तो कोई कान खींचकर यह कहते हुए लखौरीयों में खो जाता है कि अब याद आई है।

मैं ऐसी हर दीवार,ऐसे हर दर, ऐसे हर बरामदे, ऐसे हर आँगन में खो जाता हूँ, जहाँ कभी जिंदगियां ना जाने कौन कौन से ख़्वाब देख रहीं थीं। मगर जैसे ही कोई खंडहर कहता है इन्हें,मेरा दिल लरज़ जाता है।

मुझसे यह दीवारें बहुत बात करती हैं। शिकायत करती हैं, दुलारती हैं और जब जाने को होते है हम, तो कहती हैं, ठहर जाओ,यह तो सुनते जाओ, तुम्हें बड़ी तफ़रीह आएगी और मुझें कोई खींच ले जाता है यह कहते हुए, कहाँ खंडहरों में गुम हो, उसे क्या पता एक खंडहर तो दिल में भी मौजूद है, उससे कैसे बाहर निकलोगे दोस्त…

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