वकार भाई का जाना मेरे वजूद के एक हिस्से का कट जाना है

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उत्कर्ष सिन्हा

वकार भाई यानी वकार रिजवी यानी अवधनामा अखबार यानी लखनऊ की उर्दू सहाफत यानी उर्दू और हिंदी के रिश्ते का मजबूत पुल यानी अदब और सहाफत के लिए हर वक्त खड़ी एक शख्सियत.

तब अवधनामा के उर्दू में आधा दर्जन से ज्यादा संस्करण प्रकाशित होते थे और जब एक दिन उनका संदेश ले कर Shabahat Vijeta मेरे पास आये – वकार भाई चाहते हैं कि आप अवधनामा के प्रधान संपादक बनें.

मैंने चौंक कर पूछा था- अवधनामा तो उर्दू का अखबार है, मैं ठहरा हिंदी का आदमी मैं क्या कर पाऊंगा? जवाब मिला, कि इसके हिन्दी संस्करण में.

मुलाकात के वक्त वकार भाई ने कहा- उत्कर्ष भाई आप लैंग्वेज की फिक्र न करें , बस अखबार की लाइन तय करते रहें बाकी का काम ट्रांस्लेटर्स और रिपोर्टर का है.

और फिर हम वहां करीब 4 साल रहे.

रिश्ते का आलम ये कि अवधनामा की कुर्सी छोड़ने के बाद भी अवधनामा से रिश्ता नही छूटा. वकार भाई ने कहा , जब तक अवधनामा है आप इसके संपादकीय सलाहकार रहेंगे और तकरीबन 7 साल बाद भी यूपी के सूचना विभाग की डायरी में हमारा वजूद अवधनामा के नाम से ही दर्ज चला आ रहा है.

अभी चंद रोज़ पहले वे जुबिली पोस्ट के दफ्तर आये और अवधनामा के डिजिटल संस्करण को हमने मिल जुल कर नया रूप दिया और इसे आगे बढ़ाने का प्लान किया था.

वकार भाई के साथ उर्दू हिंदी लिटरेरी फेस्टिवल लखनऊ में आयोजित करने की योजना पर काम चल रहा था मगर अब वो शायद कभी नहीं हो पाएगा.

बहुत कुछ है कहने सुनने और याद करने को मगर उंगलियां साथ नहीं दे रहीं. लिखूंगा और शायद एक किताब ही लिख जाए वकार भाई पर. अलविदा , ऊपरवाला आपको जन्नत बख्शे.

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