एस.एन.वर्मा
प्रजातान्त्रिक प्रणाली में चुनाव आयोग की उपयोगिता का नकारा नही जा सकता। आयोग ऐसी प्रणाली बनाता है और ऐसे नियम बनाता है जिससे लोकसभा विधानसभा आदि में जनता की पूरी आकांक्षा परिलक्षित हो। चुनाव निष्पक्ष हो, चुनाव में कोई धांधली न हो सके। जब सीजीआई चन्द्रचूर्णा इस पद पर आये के उन्होंने कहा था वह न्यायिक व्यवस्था को सुधारेगे। वह जब से आये है कुछ न कुछ सार्थक मुद्दे उठा रहे है।
सुप्रीम कोर्ट उस अर्जी पर सुनवाई कर रहा है जिसमें कहा गया है कलीजियम जैसी व्यवस्था चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त के चुनाव के लिये भी होनी चाहये। हाल ही में अरूण गोयल को वीआरएस देकर चुनाव आयुक्त बना दिया गया है। इसी सन्दर्भ में कोर्ट ने गोयल की नियुक्ति के दस्तावेज मांगे है। जाहिर है किसी को वीआरएस देकर फिर अति महत्वपूर्ण पर बैठा देना यह इशारा तो करता ही है कि कुछ वान्छित उम्मीदे होगी। नियुक्ति वाला शक्स अहसान से दबा होगा। लोग पद मुक्ति आराम पाने के लिये चाहते है।
कोर्ट ने कहा आयुक्त की नियुक्ति में परमार्श प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जास्टिस को शामिल किया जाना चाहिये। गोयल की नियुक्ति के दस्तावेज देने के सन्दर्भ में अटार्नी जेनरल ने कहा 1991 के एक्ट के अनुसार चुनाव आयोग अपने सदस्यों की तनख्वाह कार्यकाल के मामले में स्वतन्त्र रहेगा। सुप्रीम कोर्ट इसमें दखल न दे। कोर्ट ने जवाब दिया 1991 के जिस एक्ट का अटार्नीजेनरल जिक्र कर रहे है सिर्फ सर्विस रूल से सम्बन्धित है। चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में एक पारदर्शी तन्त्र होना ही चाहिये।
चुनाव आयुक्त के कार्यकाल को लेकर कोर्ट ने कहा कार्यकाल की अवधि कम होने से आयोग की स्वतन्त्रा प्रभावित होती है चुनाव सुधार प्रभावित होता है। कार्यकाल को लेकर गौर करे तो पाते है 1950 से 1996 तके 46 सालो में 10 चुनाव आयुक्त हुये। इसके बाद 26 सालों में 10 चुनाव आयुक्त हुये। इन के औसत कार्यकाल ढाई साल का आता है। मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में टी एन शेषन का काल नही भुलाया जा सकाता। शेषन के कार्यकाल में ही चुनाव आयोग के महत्व का ज्ञान हुआ। संविधान द्वारा तय किये गये कार्यकाल को पूरा करने वाले वे आखिरी चुनाव आयुक्त रहे। संवैधानिक व्यवस्था यह है कि मुख्य चुनाव आयुक्त 6 वर्ष की अवधि के लिये होेगे या 65 साल की उम्र तक रह सकेगे।
नौकरशाहों को चुनाव आयुक्त बनाये जाने की प्रथा है। उनके अवकाश प्राप्ती की अवधि सरकार को मालुम रहती है। सरकार ऐसे लोगों को चुनती है जो निर्धारित काल अवधि पूरा न कर सके। इसका कुप्रभाव आयुक्तों पर पड़ता है वह अगर चुनाव प्रक्रिया में कुछ सुधार करना भी चाहे तो उनको समय नही मिल पाता है। दूसरे यह पद देकर सरकार जिसे सरकार अनुग्रहित करगी सरकार के प्रति उसका साफ्ट कार्नर रहेगा जिससे निष्पक्षता प्रभावित होगी। संविधान में आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया तय नही की गई है। संसद के लिये इसे छोड़ दिया गया है। पर सरकारे जानबूझकर इसके प्रति खामोशी अख्तियार किये रहती है।
ला कमीशन 2015 की अपनी रिपोर्ट में कहा है कि चुनाव आयोग के सभी आयुक्तों की नियुक्ति तीन सदस्यी चयन समिति द्वारा की जानी चाहिये। जिसमें प्रधानमंत्री लोक सभा को नेता प्रतिपक्ष या सबसे बड़ी विपक्ष पार्टी का नेता और देश के मुख्य न्यायधीश शामिल हो। सरकार इस तरफ से उदासीन है। उम्मीद जगती है कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा गतिविधियों से सरकार को इस दिशा में संविधान संगत कदम उठाने के लिये मजबूर होना पडे़गा। भारत के लोकतन्त्र को मजबूत बनाने में प्रेस, कार्यपालिका, न्यायपालिका का सभी का महत्वपूर्ण तर्क संगत सहयोग चाहिये। इसमें कार्यपालिका लोकसभा को गतिशील हो त्वरित कदम उठाना चाहिये। चीजे जितनी पुरानी होती जाती है उनमें जंग लग तो जाती है।
कोर्ट ने गोयल के नियुक्ति के दस्तावेज मांगे थे। दस्तावेज को देखने के बाद कोर्ट ने पूछा 24 घन्टे में नियुक्ति कैसे हो गई, आगे कहा हम गोयल की योग्यता पर सवाल नही उठा रहे है। हम चुनने की प्रक्रिया पर सवाल उठा रहे है। अटार्नी जेनरल ने कहा गोयल के नियुक्ति के इतर व्यापक नजरिये से देखे जाने की जरूरत है। नाम चुनने का तय आधार है जैसे वरिष्ठता रिटायरमेन्ट नियुक्तियों में तीन दिन से ज्यादा समय नहीं लगता हैं। गोयल की प्रोफाईल अहम है वीआरएस का मुद्दा नही। कोर्ट ने पूछा आयुक्त के पद पर ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति क्यों नही हो रही है जो छह साल पूरा कर सके। केन्द्र ने बिजली की तेजी दिखा 24 घन्टे में फाइल निपटा दी। कोर्ट ने फैसला सुरक्षित कर रक्खा है।
यो भी आदर्श लोकतन्त्र वह है जिसमें सरकारी हस्तक्षेप कम से कम हो। मोदी इस समय देश विदेश में छाये हुये है। उनसे ज्यादा आशा बनती है। वह सब कुछ लोकतन्त्र के अनुसार अपनी जगह पर बैठा देगे।