Tuesday, May 13, 2025
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दो दिवसीय उर्स-ए-वाहिदी-जाहिदी का समापन

बिलग्राम, हरदोई: नगर के मोहल्ला सुल्हाड़ा में स्थित सूफी संत हजरत मीर अब्दुल वाहिद बिलग्रामी की याद में आयोजित दो दिवसीय उर्स-ए-वाहिदी-जाहिदी का समापन रविवार दोपहर 2 बजे भव्य रूप से संपन्न हुआ। पीर-ए-तरीकत हजरत सैय्यद हुसैन अहमद हुसैनी मियां की देखरेख में यह कार्यक्रम मोहल्ला सुल्हाड़ा की बड़ी मस्जिद में आयोजित किया गया।
कार्यक्रम की शुरुआत शनिवार शाम 4 बजे हुई, जब हजरत सैय्यद हुसैन मियां ने हजरत मीर अब्दुल वाहिद रहमतुल्लाह अलैह की दरगाह पर चादरपोशी की। इसके बाद गागर का जुलूस निकाला गया, जिसमें बड़ी संख्या में अनुयायियों ने उत्साहपूर्वक हिस्सा लिया। नमाज-ए-ईशा के बाद वाहिदी कॉन्फ्रेंस का आयोजन हुआ, जिसमें देशभर से आए विद्वान उलेमा और शायरों ने शिरकत की।

जलसे की शुरुआत कुरआन की पवित्र आयतों के साथ हुई और इसका संचालन वारिस चिश्ती कानपुरी ने किया। बरेली से आए मुफ्ती राहत खान ने इस्लामी तौर-तरीकों पर आधारित जीवन जीने की प्रेरणा दी। मुफ्ती तबरेज आलम (नानपारा), मौलाना इरफानुल हक (खटीमा), मौलाना मोनिस रजा (कन्नौज), मौलाना तौसीफ रजा मिस्बाही (संभल) और मौलाना रियाज गोला ने भी अपनी तकरीरों से श्रोताओं को प्रभावित किया। बीच-बीच में नात-ख्वानी ने महफिल में रूहानी रंग भरा। असद इकबाल कलकत्तवी, शमीम इलाहाबादी, जैनुल आबदीन कन्नौजी, इमरान बरकाती (दिल्ली) और युसुफ रजा कानपुरी ने अपने मधुर कलामों से सभी का दिल जीत लिया।

रविवार सुबह 9 बजे से साहिब-ए-उर्स की शान में मनकबत और नातिया कलाम पेश किए गए। उलेमाओं ने सूफी संतों की जीवनी और उनके योगदान पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि जब इंसान अपने ईमान को पूर्ण करता है, तभी वह मीर अब्दुल वाहिद, आला हजरत या गौस-ख्वाजा जैसी शख्सियत बन पाता है। उलेमाओं ने मुस्लिम समुदाय पर हो रहे अत्याचारों, विशेष रूप से फलस्तीन की स्थिति पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि दुनियाभर में मौलानाओं और आलिमों की संख्या यहूदियों से कहीं अधिक है, फिर भी हालात नहीं बदल रहे, क्योंकि ईमान में कमी है।

दोपहर 1:45 बजे हजरत मीर अब्दुल वाहिद बिलग्रामी का कुल शरीफ हुआ, जिसमें सभी ने मुल्क में अमन-चैन और भाईचारे के लिए दुआएं मांगी। हजरत हुसैन मियां ने सभी मेहमानों, मुरीदों और जायरीनों का दिल से शुक्रिया अदा किया। कार्यक्रम का समापन दरूद-सलाम और लंगर वितरण के साथ हुआ।

यह उर्स न केवल आध्यात्मिकता का प्रतीक बना, बल्कि एकता और भाईचारे का संदेश भी दे गया।

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