अवध क्षेत्र में धर्म प्रचार कार्य करने वाले आचार्य संगम बाजपेयी ने आश्विन अमावस्या पर पितृ पक्ष के समापन पर कहा कि श्रद्धया पितृन् उद्दिश्य विधिना क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम्। इसका अर्थ है कि श्रद्धा से पितरों के लिये किया गया कर्म श्राद्ध कहलाता है।
आचार्य संगम ने कहा कि श्रद्धार्थमिदं श्राद्धम् अर्थात अपने मृत पितृगण के उद्देश्य से जो श्रद्धा पूर्वक किये जाने वाले कर्म विशेष को श्राद्ध शब्द से जाना जाता है। इसे पितृ यज्ञ भी कहते हैं। जिसका वर्णन मनुस्मृति, धर्मशास्त्रों, पुरानो वीरमित्रोदय, श्राद्धकल्पलता आदि अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होता है। महर्षि पराशर के अनुसार देश, काल तथा पात्र में हविष्यादि विधि द्वारा जो कर्म तिल, यव (जौं) और कुश तथा मन्त्रों से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया गया जाप है, वही श्राद्ध है।
संगम बाजपेयी ने पितृ पक्ष में ब्राह्मण भोजन की विशेषता बताते हुए कहा कि जो जिस योनि को प्राप्त करता है। उसी के अनुसार उसे तृप्ति प्राप्ति होती हैं। हाथी के पेट को, और चीटी के पेट को कैसे एक पिण्ड भर सकता है। यह पिण्ड देवता को अमृत, हाथी को भोजन, चीटी को दाने के रुप में प्राप्त होता है। सामान्यतः श्राद्ध की दो प्रक्रिया है, पिण्डदान और ब्राह्मण भोजन। मृत्यु के बाद जो लोग देवलोक या पितृलोक में पहुंचते हैं, वे मन्त्रों के द्वारा बुलाये जाते है। बुलाये जाने पर उन लोकों से तत्क्षण श्राद्धदेश में आ जाते हैं और निमन्त्रित ब्राह्मणों के माध्यम से भोजन कर लेते हैं। सूक्ष्म ग्राही होने से भोजन के सूक्ष्म कणों के आघ्राण से उनका भोजन हो जाता है, वे तृप्त हो जाते हैं।
धन के अभाव में श्राद्ध कर पूण्य कमाने पर उन्होंने कहा कि शास्त्रों में वर्णन है कि धनाभाव हो तो शाक दान किया जाए। कुछ न हो तो श्रम करके पैसा मिले उससे करना चाहिए। अगर यह भी सम्भव न हो तो घास लाकर गायों को खिलाना चाहिए। अगर घास का भी अभाव है तो एकान्त में जाकर दोनो भुजा आकाश में उठाकर बोलना है कि मेरे पितर सन्तुष्ट हो, मेरे पास कोई पदार्थ नहीं है। विष्णु पुराण में वर्णन है कि न मेऽस्ति वित्तं न धनं च नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्नतोऽस्मि। तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य।
उन्होंने कहा कि वित्तशाठ्यम् न समाचरेत् अर्थात श्राद्ध कार्य में साधन सम्पन्न व्यक्ति को वित्त शाठय (कंजूसी) नही करनी चाहिए। पिता का श्राद्ध करने का अधिकार मुख्य रूप से पुत्र को ही है। यह सभी कार्य ज्येष्ट पुत्र को करना चाहिए। और जितने पुत्र हैं, वह भी करें। संयुक्त परिवार में ज्येष्ठ पुत्र ही करता है। अपितु पुत्र अलग-अलग हों तो उन सभी पुत्रों को वार्षिक श्राद्ध करना चाहिए। श्राद्ध कल्पलता के अनुसार श्राद्ध करने के अधिकारी क्रमश पुत्र, प्रपौत्र, दौहित्र (पुत्री का पुत्र), भाई, भतीजा, पिता, माता, पुत्र वधू, बहन, भानजा, सपिण्ड तथा सोदक कहे गये हैं।
आचार्य संगम ने श्राद्ध के फल के बारे में कहा कि जो प्राणी विधि पूर्वक शांतमन होकर श्राद्ध करता है, वह सभी पापों से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त करता है। उसके पितृगण सन्तुष्ट होते हैं, जिससे श्राद्ध अपने अनुष्ठाता की आयु को बढ़ा देता है। पुत्र प्रदान कर कुल परम्परा को अक्षुण्ण रखता है, धन-धान्य की वृद्धि होती है। शरीर में बल पौरुष का संचार होता है। यश का विस्तार करते हुए सभी प्रकार सुख प्रदान करता है।