अनार नहीं सलीम की अनारकली

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एस.एन.वर्मा

शहजादा सलीम की माशूका अनारकली बादशाह अकबर के हरम में एक कनीज़ थी जिसे बांदी भी कहते है। अनारकली का संबंध ईरान से था। उसका असली नाम नादिरा बेगम था। उसका एक और नाम शर्फुनिन्सा था। अनारकली के बारे में बहुत सी किबदन्तियां प्रचलित हैं। उसे लेकर कई नाटक लिखे गए। उसे लेकर कई फिल्म भी बनाई गई। उस पर मूक जमाने की मूक फिल्में बनी। जब सिनेमा बोलने लगा तो भी उसे लेकर फिल्में बनी। उसके बारे में पहले भ्रम जाल को साफ करने के लिए इतिहास को खंगाला गया तो कई भ्रांतियां दूर हुई। अनारकली ईरान के तिजारती परिवार की लड़की थी। बेपनाह हसीन थी। लुटेरों ने जब इसके वालिद के काफिले को लूटा तो अनारकली के हुस्न से प्रभावित होकर उसे भी लूट लिया। उसे पंजाब के गवर्नर के खुशामद में पंजाब के गवर्नर को पेश कर दिया। पंजाब के गवर्नर ने शहंशाह अकबर की खुशामद में नादिरा बेगम यानी अनारकली को शहंशाह को भेंट कर दिया। शहंशाह अकबर ने उसके हुस्न से सम्मोहित हो उसे अनारकली का नाम दे दिया। चूंकि अनार की काली बहुत खूबसूरत और नाजुक होती है। उसके हुस्न से अकबर के हरम की कनीजे भी प्रभावित थीं उसे बेपनाह इज्जत मिल रही थी। कनीजों में उसका रुतबा दिन-दिन बढ़ता जा रहा था क्योंकि अकबर की बहुत चहेती कनीजे बनती जा रही थी। अनारकली को नाचने और गाने का बड़ा शौक था। एक दिन मुगल बादशाह के शानदार दरबार जो उसके नाच गाने के लिए खासतौर से सजाया गया था नर्तकियों के साथ नाच गा रही थी कि शहजादा सलीम और अनारकली की नजर टकरा गई। उस टकराहट में दोनों में मोहब्बत का एक शोला भड़का कि बादशाह अकबर उसके शोले का ताप सह नहीं सके और गुस्से में अनारकली को जिंदा दिवार में चुनवा दिया। अनारकली ने शहजादा सलीम की खातिर जान देना कबूल कर लिया।
इसके बाद उसके बारे में बहुत सी किबदन्तियां फैली। इतिहासकार, नाटककार, सिनेमाकार अपने-अपने परिकल्पना के अनुसार अपने कृतियों को रोचक बनाने के लिए, लोगों में लोकप्रिय बनाने के लिए अनारकली को तरह-तरह से गढ़ने लगे। अब सुनिए अनारकली को लेकर लिखी गई कुछ किताबें, नाटक के साथ उसे पर बनाई गई फिल्मों के किस्से यहां तक कि गुरुवर रविंद्र नाथ टैगोर को भी अनारकली के किस्सों ने प्रभावित किया और बंग्ला में उस पर एक लंबी कविता लिख डाली। जिसका उर्दू में तर्जुमा मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी ने किया है।
अब अनारकली के बारे में अदीबों के दीवानबाजी के किस्से सुनिए। इन लोगों ने अनारकली को लैला मजनू, हीर रान्झा, रोमियो-जूलियट के समकक्ष खड़ा कर दिया। सैयद अब्दुल लतीफ जो इस्लामी संस्कृति और उर्दू किताबें के लेखक हैं उन्होंने तारीखेलाहौर जो 1892 में लिखी गई थी, लिखा है अकबर ने शक के बुनियाद पर अनारकली को दिवाल में जिंदा चुनवा दिया था, यह मिथक है, इसका कोई भी ऐतिहासिक आधार नहीं है। अनारकली को लेकर इतिहास भरा पड़ा है। कई तरह की कहानी लिखी गई है। पर लेखको और इतिहासकारों ने इसे दिलचस्प बनाने के लिए अनारकली और सलीम के किस्सों को अपनी सुविधा अनुसार गढ़ा है। जिससे लोगों में इसे पढ़ने का क्रेज बढ़े।
लेखको फिल्मकारो, इतिहासकारों ने 500 साल से ज्यादा अनारकली को जिंदा रखा है तो इसका मतलब है कि उस कनीज़ में कुछ बहुत खास रहा होगा। नूर अहमद चिश्ती ने अपनी किताब तहकीकातें-ए-चिरितयां में लिखा है अनारकली अकबर की पसंदीदा रखैल थी। अकबर उसपर फिदा था। उसी पर उसके बेटे सलीम का भी दिल आ गया था। हैरत होती है कि जिस पर पिता का दिल आ गया था उसी पर बेटे का भी दिल आ गया। अनारकली के सौंदर्य से एक अंग्रेज विलियम फिन्च भी अछूते नहीं रहे। वह मानते हैं कि अकबर ने शहजादा सलीम और अनारकली के अवैध संबंध को लेकर अनारकली को जिंदा चुनवाने का आदेश दिया था। 1590 में अनारकली को दीवारों में जिंदा चुनवा दिया गया था और उसके नाम पर एक मकबरा बनवा दिया गया था। यह मकबरा लाहौर के अनारकली बाजार में है।
पाकिस्तान में पंजाब सिविल सेक्रेटरिएट के करीब ताजमहल के रंग का एक मकबरा है। इसे अनारकली का मकबरा बताया जाता है। सलीम ने इसे बनवाया था। अनारकली के संदर्भ में मकबरे पर अल्बेयर कामू की सूक्ति की साहित्य झूठ का एक ऐसा पुलिंन्दा है जिसके जरिए हम सत्य का बखान करते हैं अनारकली को लेकर रोचक और लोगों को आकर्षित करने के लिए कई तरह की भ्रांतियां पैदा करने में हस्तियां लगी हुई है अभी इतनी पुरानी बात होने के बावजूद इतिहास में दर्ज होने के बावजूद भी लोग नई-नई कहानी करने में लगे हुए हैं। कहाँ जाता है सलीम ने अनारकली के कब्र पर लिखवाया था ‘‘अगर हम अपनी महबूबा को एक बार भी बाहों में भर सकता तो अल्लाह का शुक्रिया अदा करता।’’ मकबरे के भीतर कब्र पर 1599 और 1615 की तारीख उकेरी गई हैं, जो उसकी मौत और मकबरे की तामीर करने की हैं। अकबर के मरने के बाद सलीम ने यह मकबरा बनवाया था क्योंकि अकबर अगर जिंदा रहते तो यह काम सलीम को एक बंादी के लिए नहीं करने देते।
अनारकली के मकबरे के बाग में कई इमारते बनाई गई थी। बाजार में मुगलकाल का एक खूबसूरत गुंबद है जो मुगल काल के उत्कृष्ट कला का एक नमूना है। दारा शिकोह ने इसके बारे में लिखा है। 1821 में महाराणा रणजीत सिंह ने इस बाग को जनरल बन्तोरा को सौंप दिया। उसने मकबरे को तहस-नहस कर दिया। बाग को परेड ग्राउंड में बदला गया तो मकबरे के ताबीज को तोड़ दिया गया। मकबरे का चबूतरा संगमरमर का था, इसे निकाल कर अमृतसर के दरबार साहब में भेज दिया गया था। मकबरा के ताबीज पर खुदा के 99 नाम लिखे हुए थे। 1816 में वली अहद खड़क सिंह की ताजपोशी के समय बाग में अहम हस्तियां के खेमे गड़े रहे। जिससे बाग की खूबसूरती मटियामेट हो गई। यहां फौजे ठहरने लगी और यह रणजीत सिंह के समय से छावनी अनारकली के नाम से मशहूर हो गया।
1849 में जब अंग्रेज शासक आए तो मकबरे को तोड़कर गिरजाघर बना दिया। सेंट जेम्स चर्च अनारकली नाम रख दिया गया। अनारकली की लाश को निकाल कर स्तूप के नीचे दबा दिया गया। 1948 की खुदाई से पता चला कि कब्र वहीं मौजूद है, जो मकबरे के फर्श से 9 फुट नीचे है। 1857 में यह खबर फैली कि अंग्रेज मकबरे के स्थान पर गिरजाघर बनवा रहे हैं। हजारों मुसलमान विरोध में उठ खड़े हुए कुछ अंग्रेजों ने उन पर गोलियां चलवा दी अब इस जगह फाइनेन्स कमिश्नर का दफ्तर है।
अनारकली को लेकर मूक सिनेमा और संवाद सिनेमाकाल में कई फिल्में बनी पर के. आसिफ का मुगलेआज़म ने अनारकली को वह बुलंदी दी कि वह घर-घर का नाम हो गई। 1922 में इम्तियाज अली ने अनारकली नाम से एक ड्रामा लिखवाया और खेला गया वो फ्लाप रहा। नाटक में उस समय के वक्त के हालात और सीन पैदा नहीं कर सका जिससे नाटक रेडियो के आगोश में सिमट कर रह गया। पर नाटक के बारे में प्रेमचन्द ने लिखा मुझे जितनी कशिश अनारकली से हुई उतनी किसी और ड्रामे से नहीं हुई। नाटक के डायलॉग बहुत हृदयस्पर्शी थे। अल्लामा इकबाल ने लिखा अनारकली ज़बान में रवानी और अंदाजे बयां में दिलफरेबी है
इसके बाद अनारकली की तरफ फिल्मकारों का ध्यान गया। कुछ लोगों ने एक साथ शुरू की। 1928 में प्रफुल्ल राय और चारन राम ने मूक फिल्म बना डाली, नाम रखा ‘‘लवर्स ऑफ द मोगल पिं्रस’’। अभी यह फिल्म बनी ही रही थी कि ईरानी ने अनारकली नाम से फिल्म शुरू कर दी। मेहनत करके एक हफ्ते में फिल्म पूरी कर दी। सागर निजामी साहब बटवारे के बाद बम्बई आ गए और के. आसिफ के साथ मिलकर मुगलेआज़म का स्क्रीन प्ले लिखा। 1958 में निजामी साहब ने अपने अंदाज में अनारकली नाटक लिखा। नाटक रेडियो पर प्रसारित हुआ। 1963 में ड्रामा किताब की शक्ल में आया जिसे खूब तारीफ मिली।
ईरानी एक जुनूनी फिल्मकार थे। 1928 में अनारकली पर जो मूक फिल्म बनाई थी 1935 में टाकी फिल्में तब्दील कर रिलीज कर दिया, अपार सफलता मिली। इसके बाद के. आसिफ ने 1945 में बाम्बे टॉकीज स्टूडियो में नरगिस और चंद्र मोहन को लेकर मुगलेआजम का मुहूर्त किया पर 1947 का विभाजन आ गया। मुंबई चले आये फिल्म अधूरी बानी छोड़ चले गए। अनारकली का नशा उन पर जारी था। मधुबाला, दिलीप कुमार, पृथ्वीराज कपूर को लेकर आकर्षक मुगलेआज़म पूरा कर प्रदर्शित किया। पिक्चर की धूम मच गई। फिल्म बनाने के बीच में उसके खर्चे से परेशान प्रोड्यूसर फिल्म सोहराब मोदी को सौप दी पर फिर के. आसिफ को ही मिल गई। मतलब अनारकली की असली जिंदगी की तरह उस पर बनी फिल्में भी तरह-तरह की कहानियों से लबरेज़ है।
शहजादा सलीम और अनारकली के मोहब्बत की दास्तान भले ही 500 साल पुरानी है पर आने वाली पीढियां को लुभाती रहेगी।
इक लब्ज़ मोहब्बत का छोटा सा फसाना है,
सिमटे तो दिले आशिक फैले तो ज़माना है।

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