जरूरतमंदों तक पहुंचने से पहले ही सूख जातीं हैं विकास की नदियां

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अवधनामा संवाददाता (शकील अहमद)
परिवार को चलाने के लिए जिंदगी से जूझ रहे दो मासूम
कुशीनगर। केंद्र और प्रदेश सरकार चाहे विकास योजनाओं को धरातल पर उतारने का लाख दंभ भर ले, शिक्षा का अधिकार घर-घर दिलाने का वादा कर ले लेकिन जिम्मेदारों की उदासीनता से जरूरतमंदों तक जाने वाली विकास की नदियां अक्सर सूख जातीं हैं। जिससे कुछ ऐसे बदनसीब महरूम हो जाते हैं जिन्हें वास्तव में विकासवादी योजनाओं की सख्त जरूरत है। ऐसा ही एक ज्वलंत उदाहरण है अशिक्षा, भुखमरी, बेबसी और बदनसीबी का जीता जागता उदाहरण साबिर है।
पडरौना-कसया मार्ग पर सड़क किनारे गंदगी व कूड़े के ढेर पर बैठकर कूड़ा बीनते बच्चों पर नजर पड़ी। तस्वीर लेने के बाद जो कहानी सामने आई वह वास्तव में हृदय को द्रवित करने वाला और आंखों में आंसू लाने वाला है। कुड़ा बिनने वाले बच्चे की उम्र करीब 8 वर्ष और नाम साबिर हैं। साथ में कुड़ा बिनने वाली बच्ची का नाम पातर और उम्र करीब 5 वर्ष है। पूछने पर साबिर ने बताया कि उसके परिवार के आय का कोई अन्य स्रोत नहीं है, यही कारण है कि वह और उसकी बहन हाथ से ठेला गाड़ी धकेल कर शहरों से सड़क किनारे खेतों में लाकर फेंके गए कूड़े के ढेर से प्लास्टिक व प्लास्टिक के अन्य सामान बिनते हैं और उसे ले जाकर कबाड़ की दुकान पर बेच देते हैं। और मिले पैसे से परिवार की गाड़ी चलाते हैं। साबिर ने बताया कि उसके पिता का नाम ईस्लाम है और वह झोपड़ी डालकर पडरौना-कसया मार्ग पर स्थित बाड़ी पुल के निवासी हैं। उससे यह भी कहा कि वह पढ़ना चाहता है लेकिन पैसे के अभाव में वह पढ़ नहीं पा रहा है वह घर में छोटा है। एक सवाल के जवाब में उसने कहा कि “पढ़ाई बढ़हन लोग के लयीका करेला साहब” आगे कहा कि “कौनों उपाय कर के हमारा के पढ़ा दीं”। सचमुच उसकी व उसके परिवार की कहानी सुनकर किसी के भी आंखों में आंसू आ जाएंगे। साथ में कुड़ा बीन रही बच्ची पातर ने बताया कि उसके बड़े भाई का तबीयत खराब रहता है, माता-पिता का भी अक्सर बिमार रहते हैं उनके दवाई इलाज और घर परिवार की गाड़ी ढ़ोने के लिए ठेला हाथ गाड़ी लेकर कूड़ा बिनते हैं और बदले में मिले पैसे से घर परिवार की गाड़ी चलाते हैं। उसने यह भी बताया कि पड़ोस के एक दबंग व्यक्ति द्वारा बहुत पहले से उनके पुश्तैनी जमीन को हथिया लिया गया है और आज तक उसका परिवार मुकदमा लड़ रहा है जिससे काफी पैसे मुकदमा में चलें जाते हैं यही नहीं कई दिन कबाड़ न मिलने पर उन्हें पैसा नहीं मिलता है और उसके परिवार को भूके सोना पड़ता है। फिलहाल किसी कंपनी द्वारा एक्सपायर अचार के फेंके गए डब्बे से वे दोनों सड़े हुए अचार निकाल रहे थे आस-पास बदबु फैला हुआ था, सड़कें से हजारों गाड़ियां गुजर रही थी और किसी की भी नजर इन दोनों मासूमों पर नहीं पड़ रही थी। जो दो पैसे की लालच में लगातार अपना काम कर रहे थे। ऐसे में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि सरकार द्वारा भेजी गई विकास की नदियां इन जैसे बदनशीबो तक आते आते पता नहीं क्यों सूख जाती हैं।

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