अवधनामा संवाददाता
ललितपुर। वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की जयंती पर आयोजित परिचर्चा को संबोधित करते हुए नोहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो.भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि रानी झांसी स्वराज के लिए लड़ी, स्वराज के लिए अड़ी और स्वराज की नींव का पत्थर बनीं। उनके शत्रु सेनापति ह्यूरोज के मुख से निकले निजी डायरी में अंकित ये शब्द वह थीं, उन सबों में सर्वोत्कृष्ट वीर-कोटि कोटि हृदयों में सदैव अंकित रहेंगे। प्रो. शर्मा ने कहा कि तदयुगीन पदयात्री पूना के मराठा पं.विष्णुभट्ट शास्त्री ने आँखों देखा गदर की विश्व प्रसिद्ध पुस्तक के पृष्ठ सं.76-77 पर जो विवरण दिया है, उन्हीं के शब्दों में झांसी छोड़ते समय बाईसाहब रात के बारह बजे, रेशमी दुपट्टे से अपने बारह वर्षीय दत्तक पुत्र को पीठ से बांधते हुए, घोड़े पर बैठकर, कालपी की ओर अग्रसर हुईं, तब उनके पास मात्र एक रूपये की रेजगारी थी। बदलने के लिये, दूसरे वस्त्र भी नही थे। चौबीस घंटे बिना खाए- पिए घोड़े पर पुत्र को बांधे हुए गुजार दिए। कालपी पहुँचने पर तांत्या टोपे ने तम्बू लगाकर राजसी कपड़े सिलवा कर प्रबन्ध किया। उक्त पुस्तक के पृष्ठ सं. 79 पर कदाचित आँसुओं की स्याही लिखा विवरण अंकित है कि रानी के न रहने पर झांसी क्षेत्र के प्रत्येक स्त्री पुरूष को यह अनुभव हो रहा था, जैसे जिन्दा होते हुए भी, वह शमशान भूमि में रखी अर्थी से बँधा हो। अँग्रेजों की ठकुर- सुहाती करने वाले इतिहासकार अक्सर यह कहते हैं कि विश्व भर में व्याप्त होने के कारण उनके साम्राज्य का सूर्य कहीँ नहीं डूबता था, पर इस सच्चाई को लोग देर से महसूस करते हैं कि इस साम्राज्य को उखाड़ फेकने वाले बलिदानियों का खून भी कहीं सूखता नजर नहीं आता। उन्होंने कहा कि झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई की महिला शाखा की सेनापति वीरांगना झलकारी बाई ने जब झाँसी के पतन का दुखद समाचार सुना तो वह गहरे विषाद में डूब गई। ऐसे विषम प्रसंग के संबंध में इतिहास के कंकाल में मांस और रक्त का संचार करके उसे उपन्यास सम्राट वृन्दावनलाल वर्मा ने इतना सजीव बना दिया कि झाँसी के पतन पर कलम चलाते हुए वर्मा जी का गला इतना भर उठा कि वे रानी झाँसी के बारे में कहते हैं कि महल की चौखट पर बैठकर वह रोई। वह, जिसकी आँखों का आंसुओं से कभी परिचय भी न था। वह जिसका वक्षस्थल वज्र और हाथ फौलाद के थे, वह जो भारतीय नारीत्व का गौरव और शान थी। मानो उस दिन हिन्दुओं की दुर्गा रोई। ऐसी ही संकट की घड़ी में छाया की तरह रानी का साथ देने वाली बुन्देली-आन-बान और शान की सदा हँस-मुख जीवन्त-ठसकीली प्रतिमा थी-झलकारी दुलैया। वर्मा जी कहते हैं, झलकारी दुलैया का सब ठाट-बाट सोलह आना बुंदेलखंडी-पैर की पैजनी से लेकर सिर की दाउनी (दामिनी) तक सबके सब आभूषण स्थानिक। इतनी निर्भीक और साहसी थी कि सर्वोच्च अंग्रेज सैन्य अधिकारी एलिस के कुदृष्टि डालने पर अपनी सहेली से आग -बबूला होकर, वह कह उठती है जो नठया मोई, और देखत तौ? ई कैं का मताई बैनें न हुइयें। मोरे मन में तो आउत कै पनइयाँ उतार कैं मूछन के बरे के मों पै चटाचट दे -ओं। युद्ध के समय झलकारी उन्नाव गेट पर अपने पति के साथ ही तोपों से गोले दागती है।जब उसे पता चलता है कि रानी भाण्डेरी फाटक से सुरक्षित कालपी निकल गयीं, तो वह लड़ते हुए अंग्रेजों को अटकाये रहती है, क्योंकि कद -काठी और चेहरे -मोहरे से अंग्रेज झाँसे में आकर, उसे ही झाँसी की रानी समझ बैठते हैं। इस तरह के सच्चे वृत्तांत वर्मा जी ने, झाँसी के उन बूढ़े, स्त्री-पुरुषों से सुने, जिन्होंने रानी और झलकारी को स्वयं देखा था। आँखों देखा गदर के मराठा लेखक पं विष्णु भट्ट शास्त्री ने लिखा है कि सबसे भीषण संघर्ष झांसी के खुशीपुरा, जहाँ झलकारीबाई का निवास था तथा कोरी समाज की बहुलता थी, वहीं पर हुआ। क्योंकि जिन वस्त्र निर्माताओं की रोटी-रोजी अँग्रेजों ने छीन ली थी, वहाँ के स्त्री-पुरुषों ने घर से बाहर निकल कर जोरदार गोरिल्ला युद्ध छेड़ दिया था, इसीलिए 1857 के इस जनविप्लव को प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है।