तीन दशक से उपेक्षा का शिकार हुआ रामाभार ताल की करुणा सागर परियोजना

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अवधनामा संवाददाता

कुशीनगर। मल्ल गणराज्य के समय मे निर्झर कलकल कर बहने वाली ऐतिहासिक हिरण्ड्यवती नदी के उद्धार को लेकर तीन दशक से बहुत सारी कवायद सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर की गई लेकिन उपेक्षा और दृढ़ इच्छा शक्ति के अभाव के चलते बौद्ध की पवित्र गंगा का उद्धार नहीं हो पाया। इतना ही नही करुणा सागर की कल्पना भी अबतक साकार नहीं होने से परियोजना दिवास्वप्न बन कर रह गया।
बता दें कि अंतरराष्ट्रीय बौद्ध तीर्थ स्थल व पर्यटन केंद्र के रूप में पूरी दुनिया मे विख्यात तथागत की महापरिनिर्वाण स्थली कुशीनगर में वर्ष 1989 में पड़रौना के तत्कालीन ज्वाइन्ट मजिस्ट्रेट रहे मनोज कुमार ने हिरण्ड्यवती नदी के रामभार ताल क्षेत्र में करुणा सागर का प्रस्ताव शासन को भेज था। उस वक्त प्रदेश में वीरबहादुर सिंह मुख्यमंत्री थे। कुल 250 करोड़ रुपये के लागत से होने वाले निर्माण में राष्ट्रीय राजमार्ग 28 से कसया- देवरिया मार्ग रामभार पुल के बीच के क्षेत्र में करुणा सागर के निर्माण का प्रस्ताव था। जिसमें तरण ताल, बीच, पक्के रास्ते, फब्बारे, मोटरबोट, प्रकाश, पेयजल की सुविधा आदि का निर्माण व व्यवस्था शामिल था। यह कुशीनगर का दुर्भाग्य रहा कि श्री सिंह की सरकार जाने के बाद किसी सरकार या जन प्रतिनिधि ने इस तरफ देखा तक नहीं। तीन दशक से अधिक का समय बीत गए, सरकार और अधिकारी बदलते गए लेकिन इस परियोजना को लेकर कुछ ठोस कदम नही उठाए गए। हां समय-समय पर करुणा सागर के निर्माण और नदी के उध्दार के लिए प्रशासन, बौद्ध भिक्षु, जनप्रतिनिधि व स्थानीय जनता हाथ मे फावड़ा लेकर बकिया नाले में उतरे सफाई के लिए आगे आते रहे। इस अभियान का जोर शोर से प्रचार किया गया कि हिरण्ड्यवती का अब उद्धार हो जाएगा लेकिन ऐसा नही हो पाया। कारण नदी के उद्धार की ठोस योजना का सर्वथा अभाव दिखा। करुणा सागर तो साकार नहीं हुआ लेकिन पवित्र नदी की हालत भी काफी बदतर हो चली है। पूर्व के ज्वाइंट मजिस्ट्रेट रहे अभिषेक पाण्डेय व पूर्ण बोरा ने जनसहयोग व सरकारी स्रोतों के माध्यम से कोई दो किलोमीटर नाले की सफाई की गई। लेकिन इन अधिकारियों के जाने के बाद यह प्रयास भी अधूरा रहा गया। नदी साप की रेखा सरीखी विलीन हो रही है। जिसके कारण पर्यटकीय सोंच और पुरातात्विक विकास अधर में ही लटक गया। जलकुम्भी, शैवाल, कूड़े करकट से पटी नदी को अब भी अपने उस भागीरथ का इंतजार है जो उसकी बदसूरती को खूबसूरती में बदल दे। देखना है क्या जन प्रतिनिधि या समाज सेवा की कसरत करने वाले इस पवित्र गंगा पर तरस खाते हैं। क्या इसकी तस्वीर को बदलने की कवायद पुरजोर होती है या उद्धार की परिकल्पना दिवास्वप्न ही रहेगा।
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