एस.एन.वर्मा
मो.7084669136
2009 में जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में हुई बैठक में विकसित देशों ने वादा किया था विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिये सौ अरब डालर की मदद करेगे। पर अभी तक वादा वादा ही बना लटक रहा है। सम्पन्न देशो ने औद्योगिक विकास के जरिये अपने लिये खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर ली है और अपने विलसितापूर्ण जीवन से कोई समझौता करने को तैयार नही है। अपने यहां विकास के लिये विकसित देश ऐसे ऊर्जा श्रोतों का बेरहमी से दोहन का कर रहे है। जिनसे कार्बन उत्सर्जन तेजी से होता जा रहा है। ये देश अविकसित देशो को जिनकेे लिये भारी जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराना प्राथमिकता है, जिनके लिये विकास अति आवश्यक है उनके लिये ऐसे श्रोतो को इस्तेमाल कर अपने विकास को आगे बढ़ाना अपरम्परागत ऊर्जा विकास श्रोतो का इस्तेमाल करना जिनसे कार्बन उत्सर्जन कर अंकुश लगे निहायत खर्चीला बैठता है जिनका इस्तेमाल कर पाना उनके बूते के बाहर है ऐसी बैठको में विकसित देश बड़े बड़े वादे करते है विकसित देशो को नसीहत देते है, मदद का वादा करते है और बैठक के बाद सब कुछ भूल कर अपने बने बनाये ढर्रे पर चलते रहते है।
इन सबके परिप्रेक्ष में मिस्र में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर काप 27 सम्मेलन हो रहा है। इस सम्मेलन में नुकसान और क्षति को एजेंन्डे में शामिल किया जाने से विकसित देशो पर दबाव बढ़ेगा। अब तथा कथित गरीब देश अमीर देशो के विलासितापूर्ण जीवन शैली की मनमानी गरीब देश को कीमत पर नही चलने देगे। अमीर देश गरीब देश के लिये वादे करते है उन्हें पूरी इमानदारी से निभाये और उसके प्रति गम्भीर रहे। क्योंकि यह सिर्फ अमीर और गरीब देशो की लड़ाई नही है। यह मानव और श्रृष्टि को बचाने की सम्मिलित चेष्टा है।
2015 के सम्मेलन में दो सौ से ज्यादा देशों ने भाग लिया था और समझौते पर हस्ताक्षर भी किये थे। इन देशो ने प्रतिबद्धता जताई थी कि धरती के तापमान को 1.5 डिग्री सल्सियस से ज्यादा नही बढ़ने देगे। पर 1.1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी पहले ही हो चुकी है। जाहिर है इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
इनटेªगलर गवर्नमेन्टल पैनल आन क्लाइमैट चेज के अनुमान के अनुसारा अगर धरती का तापमान 1850 के दशक के स्तर से 1.7 डिग्री से लेकर 1.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है तो दुनिया की आधी आबादी बुरी तरह प्रभावित होगी उनको जिन्दगी को खतरे में डालने वाली गर्मी और उमस से लड़ना पड़ सकता है। बारबार सम्मेलनो यही सवाल उठता रहता है कि पृथ्वी के तापमान के बढ़त को कैसे रोका जाय। मौसम में बदलाव की तेजी से सभी चिन्तित है। मौसम का असर जीवन पर पड़ रहा है। तरह तरह की अनजानी बीमारियां पैदा हो रही है। खास तौर से खाद्यान्न संकट भी बढ़ता जा रहा है।
याद कीजिये पिछले साल ग्लासगो में हुये कांप-26 की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी जी ने लाइफ स्टाइल फार एनवायर्नमेन्ट का मन्त्र दिया था। जो कि बहुत मौजू था। पर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर दुनिया बटी हुई है। ऐसे समय में दुनियां को मोदी द्वारा दिये गये मन्त्र पर गौर करना चाहिये और तदनरूप जीवन स्टाईल में मानव जाति और धरती के कल्याण के लिये गम्भीर होकर और एक जुट होकर कदम उठाना चाहिये। जहां तक प्रधानमंत्री के जीवन शैली का सवाल है वह भारतीय आम जनता का प्रतिनिधित्व करते है निहायत ही सादी लाइफ स्टाइल बनाये हुये है।
हर प्रयास के बावजूद अमेरिका और चीन जो सबसे बड़े उत्सर्जक देश है उनके साथ बाकी अमीर देश भी है जो रस्साकशी में भिड़े हुये है किसी सहमति पर न पहुचने के लिये जैसे प्रतिबद्ध है।
अमेरिका और चीन सबसे बड़े उत्सर्जक है और सक्षम देश भी है उन्हें मदद देने के वादे पर पहल कर गरीब देशो को मदद मुहैया कराने में आगे आना चाहिये और बाकी अमीर देशो को भी इसके लिये प्रेरित करना चाहिये। इस बैठक में इस दिशा में ठोस कार्यवाई दिखनी चाहिये और जमीन पर भी उतरनी चाहिये। जो जितना सम्पन्न और बड़ा है उसकी जिम्मेदारी उतनी ही बड़ी बनती है। खुदा खैर करें।