एस.एन.वर्मा
मो.7084669136
अभी तक सामाजिक जातिगत पिछड़पन को लेकर एससी,एसटी और ओबीसी के लिये कोटा निर्धरित था। 2019 में 103वें संविधान संशोधन के जरिये सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिये शिक्षण संस्थाओं में दाखिले और सरकारी नौकरियो में दस पसेन्ट कोटा लागू किया गया था। संशोधन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट मेेेेेेेे 40 याचिकाओं ने चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने चुनौती को दरकिनार करते हुये 3-2 से इस आरक्षण के वैध ठहरा दिया। इस सन्दर्भ में कई बातों पर गौर किया जैसे क्या 103वें संशोधन से संविधान के मूल ढांचे का का उल्लघंन है, अरक्षण 50 प्रतिशत सीमा को पार करता है क्या यह संविधान के मूलभावना उल्लघंन है, इस आरक्षण से एससी, एसटी, ओबीसी को इस कोटे से बाहर रखना संविधान के खिलाफ है। कोर्ट ने इन सभी मुद्दो को संविधान के मूल भावना के अमरूप 3-2 के बहुमत से माना। यह भी माना की 50 प्रतिशत की सीमा लचीली है। समय के साथ सामाजिक बदलाव के साथ प्राथमिकतायें बदलती रहती है यह तो विकास का स्वभाविक नियम है, इतिहास भी इसकी गवाही देता है। मानव पत्थर नही है जो एक जगह स्थिर रहे। आवश्यकताओं के अनुरूप नियम और अधिकार तथा कर्तव्यों का आकार घटता बढ़ता रहता है।
इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने 103वें संशोधन को विधान सम्मत मानकर आर्थिक रूप से पिछड़े हर एक तबके को शिक्षा संस्थानों में सरकारी नौकरियो में 10 प्रतिशत आरक्षण की पुष्टी कर दी आय की सीमा 8 लाख सलाना है। आरक्षण राजनैतिक दलो के लिये अहम मुद्दा बनता रहा है। विवाद भी होता रहा है। इस संशोधन को भी लेकर विवाद उठेगे जटिलतायें गिनायी जायेगी। पर यह आदमी की खासियत है सबसे निपटता उठता गिरता आगे बढ़ता रहता है। तो इस मुद्दें को लेकर भी विवाद उठेगा आगे की जटिलतायें गिनायी जायेगी हवा भी चलती रहेगी दिया भी जलता रहेगा।
यद्यपि नई श्रेणी बनाकर आरक्षण दिया गया है पर पहले से शामिल समुदायों के आरक्षण में कोई फेरबदल नही किया गया है। इसलिये पहले से पा रहे आरक्षित समुदायों में असन्तोष की कोई बात नहीं होनी चाहिये। क्योकि इस संशोधन से उनका कोई भी हित प्रभावी नही हो रहा है। दुसरे यह आरक्षण 50 प्रतिशत निर्धारित कोटे में कोई भी हस्तक्षेप भी करता है। यह तो सभी जानते है आरक्षण कोई अन्तिम सात्य नही है। यह तो सामाजिक न्याय स्थापित करने का और उसे पाने के एक सांधन मात्र है। सामजिक हालातों और वास्तविकताओं को लेकर समय समय पर फेर बदल तो होता ही रहना चाहिये। स्थिर समाज न तो प्रकृति का नियम ळै न समाज के लिये कल्याणकारी बन सकता है। पीछे देखो आगे बढ़ो सामाजिक नियम और इतिहास का क्रम है।
इस फैसले पर समाज में राजनीति में चहल कदमी शुरू हो गई है अलग अलग हिस्सो से कुछ प्रतिक्रियाये आनी शुरू हो गई है। हां अभी तक इसके खिलाफ कोई याचिका नही आई है। किसी मुद्दे को लेकर सकारात्मक बहस का स्वागत होना ही चाहिये। प्रगतिशील, प्रबुद्ध और संवदेनशील और स्वस्थ समाज में बहस का अपना महत्व होता है। सिर्फ बहस के लिये बहस या विवाद पैदा करने के लिये बहस नही होनी चाहिये। जिन्दा समाज पिछे देख आगे सुधार करता रहता है और आगे बढ़ता रहता है। अभी तक आरक्षण को लेकर व्यर्थ की लम्बी सही और गलत बहस बाजी होती रही अब इस पर विराम लग ही गया है।
समाज बहुआयामी होता है इसलिये कोई एक निर्णाय से सारो सवालो का हल नही हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि अभी आरक्षण का मकसद पूरा नही हुआ है। सही है जब तक पूरा समाज विकसित न हो जाय, आवश्यकताओं से भरा पूरा न हो जाय तब तक सोचे गये आदर्श का सपना पूरा नही माना जायेगा। सम्पूर्ण पूर्णाता में हकीकत में एक कल्पना ही है पर उसे ध्यान में रखकर आगे बढ़ते रहना है। पूरा समाज एक साथ एक स्तर पर आ जाये। सम्भव नही होता है। भेदभाव विषमता तो बराबर रहेगी। तुलनात्मक दृष्टि से कोई आगे होगा कोई पीछे एक बिन्दु पर सभी नही मिल सकते। फिर भी कुछ बेसिक चीजें होती है उनमें सम्पन्नता समान रूप से होनी चाहिये। सम्पन्नता में ऊंचा नीचा तो बराबर बना रहेगा। इसी में आदमी उद्यमी बनता है, सम्पन्नता आगे बढ़ती है। यह अबाध मति से चलता रहता है।
सम्पन्नता सुप्रीम कोर्ट का ईडब्लूएस कोटो को अमली जामा पहना देने का निर्णय एतिहासिक है और धन्यवाद तथा बधाई का पात्र है। भारतीय सुप्रीम कोर्ट की दुनिया में सराहना होती है यहां के जजों को दुनिया में मान्यता मिलती है। अन्तरराष्ट्रीय असर पर इनका दखल विचार योग्य माना जाता है। निर्धन के बलराम की कहावत याद आती है। कोर्ट वस्तव में गरीबों को मसीहा को अन्डर लाइन कर रहा है।