अंग्रेजी शिक्षा के नाम पर स्कूलों द्वारा लूट से लोग परेशान

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इंग्लिश मीडियम में पहली से बारहवीं तक पढ़ चुके ज्यादातर बच्चों को न तो शुद्ध-शुद्ध इंग्लिश बोलना आता है और न ही लिखना आता है।कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अंग्रेजी के नाम पर 12 साल इनका बर्बाद ही जाता है।।ऐसा नहीं है कि अन्य विषयों का इन्हें अच्छा ज्ञान होता है।ये लोग लगभग सभी विषयों में फिसड्डी ही रहते हैं।यदि मेरी बातों का विश्वास नहीं है तब आप अपने बच्चे का खुद से टेस्ट लें।उनसे प्रश्न पूछें उनके ही किताबों से दावा है मेरा “नौ अलग अलग तरह के बहाने करेंगे” लगभग हर प्रश्न में ये अटक जायेंगे कहीं कुछ भी वे पूरा पूरा नहीं बता पायेंगे और अंत में यह कहकर निकल जायेंगे कि यह हमें स्कूल में नहीं पढ़ाया गया है या वे यह भी कह सकते हैं कि यह पिछले टर्म का है जो अब परीक्षा में नहीं आएगा।।मतलब जो अब परीक्षा में नहीं आएगा उसे पढ़ने की जरूरत नहीं है।

इंग्लिश मीडियम स्कूल के चक्कर में देश की भावी पीढ़ियां बर्बाद हो रही हैं और इसके लिए सबसे ज्यादा माता-पिता जिम्मेवार हैं।।उन्हें अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजना अपने शान के खिलाफ लगता है और अपने जीवन के खून पसीने की कमाई इंग्लिश शिक्षा के नाम पर पहली कक्षा से लेकर बारहवीं तक लुटाते रहते हैं।।अंत में उन्हें वाकई कुछ नहीं मिलता है।।निम्न मध्यवर्गीय परिवार दिखावे के चक्कर में बर्बाद हो रहा है सरकारी स्कूल के बच्चों को वे असभ्य और अक्षम समझते हैं और खुद को ज्यादा पढ़े लिखे और सभ्य समझते हैं। अब ऐसे में इनके बच्चों को अंग्रेजी न आए तब बहुत दुःख होता है।
ज्यादातर इंग्लिश मीडियम वाले स्कूल अंग्रेजी के नाम पर कुछ नहीं पढ़ातेे हैं और तो और इस चक्कर में बच्चों का हिंदी भी खराब हो जाता है।स्कूल वाले महंगी महंगी किताबें और कॉपियां स्कूल से ही खरीदने पर मजबुर करते हैं क्योंकि स्कूल संचालक को 40%से 60% तक मोटी कमीशन प्रकाशकों के तरफ से मिलती है और कई बार तो किताबों के अच्छे सेल से खुश होकर महंगे महंगे उपहार अलग से प्रकाशन वाले दे देते हैं।।

सच्चाई यह है कि ऐसे कमीशनखोर जगह पर पढ़कर बच्चे बेईमानी,दलाली सहित अन्य प्रकार के दुर्गुण ही तो सीखते हैं।बच्चों को पढ़ाने के चक्कर में माता-पिता बेचारे आर्थिक रूप से तबाह हो जाते हैं।पढ़ाई के नाम पर स्कूल वाले केवल प्रश्न-उत्तर बच्चों को रटाते रहते हैं।परीक्षा में अंक तो मिल ही जाता है सब खुश भी हो जाते हैं।मगर बच्चा का भविष्य बर्बाद होता रहता है।अगर बच्चा अच्छा अंक न ला पाया,तो पेरेंट्स मीटिंग में शिक्षक अपनी जिम्मेवारीयों से पल्ला झाड़ते हुए माता-पिता पर ही उल्टे दो चार लाइन इंग्लिश झाड़कर चढ़ जाते हैं की आपके बच्चे का रिजल्ट अच्छा क्यों नही है?आप घर पर ध्यान क्यों नही देते हैं?उलटी चोर कोतवाल को डांटें वाली कहावत यहां चरितार्थ होती है।सच तो यह है कि बच्चे के परीक्षा में अच्छे प्रदर्शन न करने पर स्कूल के शिक्षकों को भी जिम्मेवार ठहराया जाना चाहिए मगर बेचारे माता-पिता डांट खा कर,सबकुछ लुटाकर, मुंह बनाकर वापस आ जाते हैं,और गुस्सा ट्यूशन पढ़ाने वाले टीचर पर उतारना शुरू करते हैं कि बच्चे का कम मार्क्स क्यों आया?बेचारा ट्यूशन वाला फंस जाता है।
बहुत जगह तो स्कूल वाले ही टीचर अपने ही स्कूल के बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाते हैं…माता-पिता इसलिए ऐसे शिक्षकों के पास अपने बच्चों को भेजते हैं ताकि स्कूल और ट्यूशन दोनों जगह टीचर ध्यान दे सकें “मतलब डबल इंजन की पढ़ाई” इससे सिर्फ और सिर्फ बच्चों का ही नुकसान होता है क्योंकि स्कूल वाले शिक्षक अपने ट्यूशन वाले बच्चों को अच्छे मार्क्स दे देते हैं भले ही बच्चा उस विषय में फिसड्डी ही क्यों न हो।।

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