नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने के मोदी सरकार के निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लगने के साथ ही वह बिंदु फिर बौद्धिक विमर्श में तैर रहा है कि आखिर क्यों इस बड़े निर्णय पर राज्य से प्रतिरोध का कोई स्वर नहीं? अलगाववादी या उनके समर्थक जहां खून की नदियां बह जाने की चेतावनी देते थे, वह राज्य कैसे सहजता से शांति और विकास के पथ पर चल पड़ा?
दरअसल, यह ‘विवाद’ से ‘विश्वास’ तक का सफर है, जो 1980 के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक नरेन्द्र मोदी के साथ शुरू हुआ और मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी कदमताल करता रहा। यह दशकों तक उठाए गए छोटे-छोटे कदमों का ही परिणाम है कि पीएम मोदी कश्मीरियत के इतने करीब पहुंच सके कि आमजन की नब्ज थाम ली, दिल छू लिया और जीत लिया विश्वास।
जम्मू-कश्मीर से मोदी का मन मिलने का क्रम तभी शुरू हो गया था, जब वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। विभिन्न यात्राओं में उन्होंने राज्य के कोने-कोने का भ्रमण कर स्थानीय मुद्दों को, जन अपेक्षाओं को बारंबार समझा-परखा।
संगठन के साथ यह उनकी व्यक्तिगत प्रतिबद्धता का भी द्योतक है कि 1992 में पार्टी के वरिष्ठ नेता डा. मुरली मनोहर जोशी के साथ श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने के लिए जा रहे मोदी ने आतंकियों की धमकी का जवाब इन शब्दों में दिया था- ’26 जनवरी को लाल चौक में फैसला हो जाएगा कि किसने अपनी मां का दूध पीया है।’