अपराध का संदेह के परे साबित हों अनिवार्य : विजय कुमार पाण्डेय
भूतपूर्व सैपर परमजीत सिंह को चार वर्षीय मासूम के साथ लैंगिक अपराध मामले में सेना कोर्ट लखनऊ अर्थ-दण्ड को बरकरार रखते हुए सश्रम-कारावास से मुक्त किया मामला वर्ष 2014 का था जब परमजीत सिंह को बरेली कैंट में तैनाती के दौरान माधवी (बदला नाम, असली के. सुप्रिया सिंह) के साथ लैंगिक-अपराध में सेना की धारा 69 और पाक्सो की धारा-10 के तहत आरोपी माना गया l 18 अक्तूबर 2014 से 23 नवम्बर 2014 तक चले सेना के सबसे बड़े कोर्ट मार्शल जनरल कोर्ट मार्शल ने अर्थ-दण्ड के साथ पांच वर्ष का सश्रम-कारावास सुनाया जिसे जनरल आफिसर कमांडिंग इन चीफ ने भी सेना अधिनियम-164(2) के तहत स्वीकृति दे दी उसके बाद अभियुक्त ने 2015 में सेना कोर्ट में अपील की l
ए.ऍफ़.टी.बार एसोसिएशन के महासचिव विजय कुमार पाण्डेय ने बताया कि अभियुक्त के अधिवक्ता की दलील कि लैंगिक अपराधों में हिंसा का साक्ष्य जरूरी है लेकिन सेना कोर्ट के न्यायमूर्ति डी.पी.सिंह ने पाक्सो अधिनियम और आई.पी.सी. की धारा-9 और 351 के आलोक में इसकी व्याख्या की उन्होंने आग्रावेटेड, सेक्सुअल और साधारण असाल्ट को परिभाषित करते हुए कहा कि बगैर सहमति लैंगिक-संबंध सेक्सुअल-असाल्ट की श्रेणी में आता है l अभियुक्त के अधिवक्ता ने कोर्ट में उसका बचाव करते हुए कहा कि लडकी का न पहचानना, समरी आफ एविडेंस का गैरकानूनी होना और सेना रुल 22 का पालन न किया जाना आरोपी को आरोप मुक्त करने के लिए काफी हैं लेकिन भारत सरकार के अधिवक्ता जी.एस.सिकरवार ने जोरदार बहस से इसे अस्वीकार कर दिया न्यायमूर्ति डी.पी.सिंह ने अपने निर्णय में कहा कि हवलदार के.सी.बी.सिंह के बयान से शक की कोई गुंजाईस नहीं बचती कि मैदान में खेलती बच्ची के पास अभियुक्त लेकिन संदेह से परे यह साबित नहीं होता कि दोषी ने ऊँगली अंदर डाली, हिंसा साबित नहीं होती, इसलिए सजा उचित प्रतीत नहीं होती इसलिए सुप्रीम द्वारा के.प्रेमा एस.आव बनाम याद्ला श्रीवास्तव एवं अन्य, 2003, में दी गई व्यवस्था के अनुसार अर्थदण्ड को बरकरार रखते हुए सश्रम-कारावास से मुक्त कर दिया l विजय कुमार पाण्डेय ने बताया कि निर्णय के पूर्व न्यायमूर्ति डी.पी.सिंह ने घटना-स्थल पर जाकर दोनों पक्षों के अधिवक्ताओं और पूर्व में दोनों पक्षों के अधिवक्ताओं के साथ स्थलीय निरीक्षण भी किया था l
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