नई दिल्ली। बीते सप्ताह सुकमा-बीजापुर बॉर्डर पर हुए एनकाउंटर के बाद माओवादियों द्वारा अपहरण किए गए कोबरा जवान राकेश्वर सिंह को रिहा करा लिया गया है। राकेश्वर सिंह को जंगल से लेने के लिए चार लोगों की टीम गठित की गयी थी, जिसमें कुछ स्थानीय पत्रकार भी शामिल थे। कोबरा कमांडो को रिहाई बस्तर के गांधी धर्मपाल सैनी, गोंडवाना समाज के अध्यक्ष तेलम बौरैय्या, रिटायर्ड अध्यापक जयरूद्र करे और मुरतुंडा की पूर्व सरपंच सुखमती हपका ने अहम भूमिका निभाई।
इन लोगों के साथ पत्रकार गणेश मिश्रा और मुकेश चंद्राकर भी जवान को छुड़ाने के लिए कोशिश में लगे थे। इन दोनों पत्रकारों ने माओवादियों के साथ संवाद में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। कोबरा कमांडो राकेश्वर सिंह की तस्वीर भी माओवादियों ने इन्हीं के पास भेजी थी और अपना संदेश दिया था। संदेश में कहा था कि सरकार वार्ताकारों की घोषणा करे तभी जवान को छोड़ा जाएगा। इसके बाद चार लोगों का मध्यस्थता के लिए चयन किया गया।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार पत्रकार मुकेश चंद्राकर से नक्सलियों ने कहा कि वे जगरगोंडा के जंगल में पहुंचें जहां पर एनकाउंटर हुआ था। वार्ताकारों के साथ कुछ पत्रकार भी घने जंगल में पहुंचे। जब ये लोग जंगल में पहुंचे तो देखा कि यहां जन अदालत चल रहा था, जिसमें 20 गांव के सैकड़ों लोगों इक_ा थे। इसी बीच जवान राकेश्वर को रस्सी से बांधकर लाया गया और मौजूद लोगों से पूछा गया कि क्या उन्हें छोड़ देना चाहिए। लोगों ने जब हामी भरी तब उनकी रस्सियां खोली गईं।
अपनी रिहाई के बाद कोबरा जवान सिंह ने कहा कि हमले के दौरान वो बेहोश हो गए थे। तभी नक्सली उन्हें उठा ले गए। इसके बाद छह दिनों तक उन्हें अलग-अलग गांव में घुमाया गया। उन्होंने कहा कि उनके साथ कोई बुरा सलूक नहीं किया गया। खाने-पीने और सोने की उचित व्यवस्था की गई। जहां उन्हें ले जाया गया वह इलाका 15 किलोमीटर के अंदर ही था।
वहीं जवान को छुड़ाने गए पत्रकार ने कहा कि जन अदालत के दौरान काफी देर तक नक्सली भाषण देते रहे। इसके बाद ही उन्हें छोड़ा गया। चारों मध्यस्थ जवान के साथ तरेंम के रास्ते बासागुड़ा थाने पहुंचे। वहीं राकेश्वर सिंह के सही सलामत छूटने के बाद उनके परिवार की खुशी का ठिकाना नहीं है। पिछले कई दिनों से उनका परिवार रिहाई का इंतजार कर रहा था और लगातार सरकार से अपनी अर्जी लगा रहा था।
राकेश्वर सिंह की रिहाई के यह रहे हीरो
कोबरा जवान को छुड़ाने के लिए ऐसे लोग चाहिए थे जो सरकार और माओवादियों दोनों के लिए भरोसेमंद हों। इसीलिए सबसे पहले पद्मश्री धर्मपाल सैनी का नाम सामने आया। सैनी सालों से बस्तर के आदिवासियों के लिए काम कर रहे हैं। उन्हें बस्तर का गांधी कहते हैं। इसके बाद दंतेवाड़ा के रिटायर्ड शिक्षक जय रूद्र करे को शामिल किया गया। वह भी रिटायरमेंट के बाद सैनी के साथ ही काम कर रहे हैं।