अवधनामा संवाददाता
माह-ए-मुहर्रम पर विशेष रिपोर्ट
(मक़सूद अहमद भोपतपुरी)
भाटपार रानी,देवरिया (Bhatpar Rani Devariya)। इस्लामी साल का पहला महीना मुहर्रम इंसानियत व हकपरस्ती की हिफाजत के लिए पैगम्बर इस्लाम हजरत मुहम्मद के नवासा हजरत इमाम हुसैन और उनकी खानदान द्वारा दी गई शहादत की यादें ताजा करता है।यह वही महीना है, जिसकी दसवीं तारीख को 61 वीं हिजरी में यानी आज से 1382 वर्ष पहले इराक के शहर कर्बला के तपते हुए मैदान में नबी के नवासा हजरत इमाम हुसैन ने 22 हजार यजीदी फौज के खिलाफ इंसानियत की हिफाजत के लिए जंग करते हुए अपने ख़ानदान के कुल 72 लोगों के साथ जाम-ए-शहादत को पी लिया था।मुहर्रम का चांद नजर आते ही हुसैन व कर्बला के शहीदों की याद में जगह-जगह तमाम कार्यक्रम आयोजित होते हैं।पहली मुहर्रम से इस्लामी नया साल शुरू हो जाता है।इस मौके पर भारत के तमाम हिस्सों में ताजिया बनाने की परम्परा भी है।इसमें मुस्लिमों के साथ हिन्दू बिरादरी के लोग भी बढ़ – चढ़ कर हिस्सा लेते हैं।भाटपार रानी तहसील क्षेत्र के भोपतपुरा गांव निवासी इस्लामी विद्वान मौलाना महमूद आलम कादरी ने बताया कि 61 वीं हिजरी में अमीर मआविया का बेटा यजीद एक जालिम बादशाह हुआ था।उसने लोगों पर जुल्मों -सितम ढाना शुरू कर दिया।अपनी कुशासन व घमण्ड में चूर बादशाह यजीद ने
तख़्त पर बैठते ही मदीना के गवर्नर वलीद बिन उत्बा के पास पैगाम भेजकर फरमान जारी करते हुए कहा कि तुम इमाम हुसैन से कहो कि वह हमारी बैअत (अधीनता) स्वीकार कर हमें अपना गुरु मान लें।लेकिन इमाम हुसैन ने उसे अपना बादशाह कुबूल करने व अपना गुरु मानने से साफ इंकार कर दिया,क्योंकि यजीद एक शराबखोर,बलात्कारी,फ़ासिक़,अन्या यी,अनैतिक व अत्याचारी राजा था।फिर यजीद ने कूफ़ा प्रान्त के गवर्नर ओबैदुल्ला इब्ने जय्याद के जरिए इमाम हुसैन पर अपनी बात मनवाने के लिए दबाव डाला।वहीं दूसरी ओर जब जनता बादशाह यजीद के अत्याचार व कुशासन से तंग आ गई, तो लोगों ने इमाम हुसैन को खत लिखकर अपनी रहनुमाई के लिए कर्बला आने के लिए अपील किया।इस पर इमाम हुसैन अपने 72 हमराहियों के साथ मुहर्रम की दूसरी तारीख को मैदाने कर्बला पहुंचे।जब हुसैन ने यजीद की अधीनता नहीं मानी,तो बादशाह ने अपने 22 हजार सैनिकों के साथ हुसैन के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया।जहां एक ओर यजीदी फौज हथियारों से लैश थी,वहीं दूसरी ओर मासूम बच्चों, नौजवानों, बुजुर्गों सहित कुल 72 की संख्या में हुसैनी खेमा के लोग निहत्थे थे। वहीं खत लिखकर हुसैन को बुलाने वाले लोग भी बादशाह यजीद के डर से उनका साथ छोड़ दिए।अब हुसैनियों के लिए दजला-फरात नदी का पानी भी बंद कर दिया गया।मई महीने की गर्मी की तपिश में हुसैनी खेमे के लोग लगातार तीन दिनों तक भूखे-प्यासे रहकर दुश्मन की फौज का सामना करते रहे।इस जंग में हुसैन का भाई इमाम हसन,चचाज़ाद भाई मुस्लिम व उनके दो मासूम बच्चे, अठारह वर्षीय नौजवान बेटा अली अकबर, छह माह का मासूम बेटा असगर व नन्ही बेटी सकीना प्यास से लड़खड़ाते हुए जालिम फौज के तीर से शहीद हो गए।एक-एक कर हुसैनी खेमा के सभी मर्द,औरत व बच्चे राहे हक में कुर्बान हो गए।आखिर में 10 वीं मुहर्रम को अकेला बचे इमाम हुसैन ने भी जुल्मो-सितम,अन्याय व अधर्म के खिलाफ जंग करते हुए सर झुकाने के बजाय अपनाGB सर कटा दिया।उन्होंने दुनिया को यह बता दिया कि हमें अन्याय व अत्याचार के सामने किसी भी सूरत में झुकना नहीं चाहिए।लिहाजा रहती दुनिया इंसानियत की हिफाजत के वास्ते इमाम हुसैन की बेमिसाल शहादत याद की जाती रहेगी।
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