(वकार रिज़वी 15 जनवरी-1966, 10 मई 2021)
एस.एन.वर्मा
अवधनामा का जश्न हो और अवधनामा के शिल्पी का ज़िक्र न हो यह तो नामुमकिन है। अपने दम पर अवधनामा का परचम लहराने वाले वक़ार रिज़वी साहब का जनवरी में हम सब जन्म दिन मनाते थे। पर 10 मई 2021 पिछले साल यह मनहूस खबर आई। जब कोविड की बीमारी की वजह से उन्होंने संसार को अलविदा कह दिया। पहले तो उनके मरने की खबर का किसी को यकीन नही हो रहा था। सभी फोन खड़खड़ा कर एक दूसरे से जानकारी ले रहे थे। खबर पक्की हो जाने पर मेरे दिमाग में पहली बात आई ष् तुम्हे कहता है मुर्दा कौन, तुम जिन्दों में जिन्दा हो। तुम्हारी खुबियां बाकी तुम्ही ने किया जिन्दा,ष्। आज जश्न के मौके पर मन कह रहा हैष् चन्द तस्वीरे उनकी महफूज कर लेजे, मुस्तकबिल में लोग पूछेगे, वो कैसे थे जो रहते ज़मीन पर थे पर फरिश्ते थेष् हम लोगो ने उनकी अच्छाईयां और फरिश्तापन देखा और महसूस किया है।
वे इतने खुशमिजाज़ जिन्दादिल थे जिससे बात करते थे उसे लगता था हम उनके सबसे करीबी पहली ही मुलाकात में हो गये है। आपस में लोग बाते करते थे ष् न जाने कौन सी दौलत है उनके लफ्ज़ों में, वो बोलते थे तो दुनिया खरीद लेते थे।ष् इसी सीरत की वजह से बड़े से बड़े लोग और छोटे छोटे लोग उनके मुरीद थे। मन्त्रालय, प्रशासन, राजनैतिक तबको में हर जगह वह लोकप्रिय थे और सबसे संमर्ग भी था।
अपनी मेहनत से अखबार को उस मुकाम पर पहुंचाया जहां लोग कहते थे, उनका अमला कहता था। ष्हम तो चुप थे मगर मौजे सबा के हाथो फैलती जाती थी तेरे हुस्न की खुशबू हर सूं। ष्उनका नाम लिया या अखबार का नाम लिया नही की लोग समझ जाते थे आप कहा से आये है। उनके संस्थान का सदस्य होने के नाते या उनके मित्रो में होने के नाते सरकारी या गैर सरकारी सेक्टरों में लोग तवज्जो देते थे। इसी के बल पर अवधनामा यूपी के कुछ बड़े शहरो के साथ-साथ मुम्बई से भी प्रकाशित होता था।
वक़ार साहब ने कैरियर की शुरूआत व्यापार के क्षेत्र से की पर उनका मन उसमें नही लगा। आइएएस की प्रीलिमेनरी इम्तेहान पास कर लेने के बाद भी उनका मन सरकारी या प्राइवेट नौकरी ओर आकर्षित नही हुआ। एक दोस्त की खातिर सूचना विभाग से एक रिसाला के बारे में जानकारी लेने के लिये गये तो अखबारो के बारे में भी जानकारी ली। वही से उनके मन में आया मै भी कोई इस तरह का काम खुद क्यो न करू।
पहले उन्होंने पाक्षिक निकला, फिर साप्ताहिक निकाला फिर दैनिक में रम गये।
1 जुलाई 2001 से उर्दू अवधनामा का प्रकाशन लखनऊ से शुरू किया। हिन्दी अवधनामा 17 अगस्त 2007 से शुरू हुआ।
अवधनामा आगे बढ़ता रहा, वक़ार साहब उससे सम्बन्धित गतिविधियां बढ़ाते रहे जिससे अवधनामा का सन्देश ज्यादा से लोगो तक पहुंचे। वह कहते थे उनका मक़सद अखबार निकालना नही बल्कि किसी मक़सद के लिये अखबार निकालना है। इसकी वेबसाइट बनी इसका वाइस एडीशन भी बना दुनिया भर में प्रसारित होने लगा। पहले समाचार प्रेस रिलीज के आधार पर बनते थे उन्होंने स्थानीय रिपोर्टर नियुक्त किये वास्तविक जानकारी के लिये कहते थेष् हो गई आवाज़ सस्ती और महंगा शोर है, बात बैठी है सिकुड़ कर और फैला शोर हैष्। वह जनता की आवाज सरकार तक और सरकार की आवाज़ जनता तक पहुचाने के लिये पुल का काम कर रहे थे। शुरू में जब अवधनामा के संसाधन विकसित नहीं हुये थे। अखबार के लिये बुलेटिन वगैरह की कटिंग की जाती थी फिर पेपर पर चिपकाया जाता था तब उसकी फोटो कापी बनती थी। इस काम को पूरा करने में सुबह हो जाती थी। उनका मिशन था ष्जब तलक सुबह का सूरज नही आता काम है मेरा उजालो की हिफ़ाज़त करनाष्। उजालो की हिफाज़त करते करते अन्धेरो में खो गये।
सरकारी नियमो और कोविड के हमले का अखबार पर बुरा असर पड़ा। संसाधन सिकुड़ गये। अखबार का खर्च विज्ञापन से निकलता है, वो लगभग बन्द हो गया। जो विज्ञापन मिलते थे उसका बिल बनता था और तुरन्त जीएसटी जमा करना पड़ता था। मजबूरन स्टाफ कम करना पड़ा। हवा में चर्चा थी अवधनामा बन्द हो सकता है। लखनऊ की मशहूर हस्ती दाऊदजी गुप्ता का फोन आता है अखबार बन्द मत करियेगा जो भी मदद हो सकेगी हम करेगे। यह अखबार की विश्वसनीयता और लोकप्रियता को दर्शाता है। ऐसे कई फोन इस सम्बन्ध में उनके पास आते रहते थे।
अखबार के अलावा वक़ार साहब सामाजिक कार्यो में भी व्यस्त रहते थे। महिलाओं, बच्चों, सामाजिक भाईचारा बढ़ाने को लेकर इवेन्टस का आयोजन करते रहते थे। धर्मिक कट्टरता के विरोधी थे। सभी धर्मो के आयोजनों में बिना भेदभाव के शामिल होते थे मदद भी करते थे। शिक्षा के प्रति बहुत जागरूक थे। इससे सम्बन्धित ट्रस्ट बनाये। स्कालरशिप स्कीम चलाई। उनके आकस्मिक निधन से उनका यूनिवर्सिटी बनाने का ख्वाब अधूरा रह गया।
वक़ार साहब की शादी 15.11.1997 में हुई थी। अखबार नवीसी के दौर में या सामाजिक और घरेलू परेशानियां की बीच पत्नी उनका सम्बल बनी हुई थी। पत्नी को लेकर उनका नज़रिया था ष्सब कुछ तो पा लिया है मैने तुमको पाकर, उठते नहीं है हाथ मेरे इस दुआ के बाद पत्नी के लिये इससे अच्छा शौहर कौन होगा। वक़ार साहब की काम लेने की शैली बहुत भाईचारे वाली होती थी। किसी ग़लती पर किसी एक को बुलाकर डाटते नहीं थे। चाय पर सबको बुला कर उस पर चर्चा करते थे कर्मचारी सावधान हो जाते थे अब ऐसा न हो। जब कभी चाय पर सबको बुलाते लोग गलतियां ढूढ़ने लगते थे। कर्मचारियों के पेमेन्ट के लिये बहुत जागरूक थे हर महीने की आखिरी तारीख को सबके टेबुल पर लिफाफा पहुंच जाता था।
अपने व्यक्तित्व का प्रभाव उन्होंने सभी पर छोड़ा है। चाहे घर परिवार के लोग हो या बाहरी लोगे। उनके एक भाई नज़र मेहदी साहब से मेरी मुलाकात होती रहती है। उनसे बात करता हूं तो लगता है वक़ार साहब से बात कर रहा हूं। यह उनके व्यक्त्वि का असर है कि उनके जाने के बाद उनके खाली स्थान को पत्नी इस तरह भरा है कि लगता ही नही की माहौल और प्रशासन में कोई बदलाव आया है। अवधनामा अब अपनी उसी गति से चल रहा है। पत्नी के दर्द को महसूस किया जा सकता है। उनकी हिम्मत को दाद देना पड़ेगा लगता है। यह शेर उन्हीं के लिये लिखा गया थाष् ये तो हमी है जो सीने में दर्द छुपाये, दुनियां का हर काम बदस्तूर किये जाते है। इस जज्बे़ को सलाम।
वक़ार साहब से हमारे सम्बन्ध कितने सौहार्दपूर्ण थे इसके गवाह संस्थान की नीना मैडम, यादव जी और मतिराम है। वका़र साहब को लेकर अपने काम के बारे में निश्चित रहता था। निडर होकर काम करता था। भाई साहब आप की कमी किस तरह खलती है क्या बाताऊ ष्तुम्हारी याद आंसू बनके आयी चश्मे वीरा में जाने अनजाने कोई गलती हो तो क्षमा जहां शमा की तरह दिल जलाये जाते है बड़े अदब से वहां आप बुलाये जाते थे। क्षमा याचना के साथ इसष् भरोसे पर कह रहा हॅू गुनाह बक्श देना तो तेरी फितरत है।ष्