लखनऊ : 20 अक्टूबर | Saleha Rizvi | ख़्वातीन सानी ए ज़ेहरा कमेटी की जानिब से अरबईन वॉक (पदयात्रा) में भारी संख्या में ख़्वातीन व छोटी उम्र की बच्चियोँ ने शिरकत की | अरबईन वॉक में हर उम्र महिलाओं व कमसिन बच्चियों ने संजीदगी नज़्म व ज़ब्त का मुज़ाहिरा कर जुलूस को कामयाब बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया | अरबईन वॉक (पदयात्रा) मोहतरमा शबनम रिज़वी साहिबा के मश्विरे और उनकी निगरानी में समाप्त हुआ |
ख़्वातीन सानी ए ज़ेहरा कमेटी की जानिब से अरबईन वॉक की अध्य्क्ष सालेहा रिज़वी एडिटर शिया क़ौम डॉट काम ने बताया कि इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारत के बारे में भी बहुत सी हदीसों में आया है कि कि इमाम हुसैन अस की जियारत दोज़ख़ की आग से बचाती है |
वैसे अगर देखा जाए तो मुक़द्दस मुकामों, पवित्र स्थलों, तीर्थयात्राओं आदि के लिए पैदल यात्रा किसी विशेष धर्म से मख़सूस नहीं है बल्कि यह लगभग हर धर्म में दिखाई देती है | जैसे हम अपने हिन्दुस्तान में देखते हैं कि कावण यात्रा करते हुए पैदाल अपने तीर्थस्थल जाते हैं, या फिर कुछ लोग धामों की यात्रा पर पैदल जाते हैं, या इतिहास में रूस का बादशाह क़ैसर बैतुल मुक़द्दस पैदल गया।
* मोहतरमा शबनम रिज़वी साहिबा ने बताया कि पैदल ज़ियारत को जाना हमेशा से रहा है क़ुरआन व हदीस का मुतालेआ करने से हमें मालूम हुआ कि हज़रत आदम अ0स0 अल्लाह के घर की ज़ियारत के लिए हज़ार बार पैदल गए। वैसे इस्लाम में भी पैदल ज़ियारत को जाने को अच्छा माना गया है और उसके लिए बहुत ताकीद की गई है |
* जाकिरा आल ए ज़ेहरा ने महतवपूर्ण जानकारी देते हुवे बताया कि मोहद्दिस नूरी के ज़माने तक ओलेमा और धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों के बीच पैदल यात्रा प्रचलित थी |
लेकिन जैसे जैसे गाड़ियों का चलन बढ़ता गया पैदल यात्रा अपना रंग खोती गई लेकिन नजफ़ में प्रसिद्ध शिक्षक और धर्मगुरु सैय्यद महमूद शाहरूदी के आने और करबला तक पैदल यात्रा करने पर आपकी ताकीद ने इस रीत मों दोबारा नई जान फूंक दी और इमाम हुसैन अस की ज़ियारत के लिए पैदल जाना एक पवित्र यात्रा के तौर पर माना जाने लगा और धीरे धीरे यह इराक़ के लोगों के बीच भी प्रचलित हो गया।
* शगुफ्ता हुसैन ने कहा कि ऐतिहासिक स्रोतों से पता चलता है कि पैदल मासूमीन अस की ज़ियारत को जाना ख़ुद इमामों के ज़माने से ही प्रचलित था और इस्लामी देशों में अधिकतर इसे अंजाम दिया जाता था। लेकिन इस्लामी देशों की बदलती स्थिति और वहां अलग अलग प्रकार की हुकूमतों के चलते इसने अलग अलग मौसम को देखते हुवे कभी कभी यह ज़ियारत बहुत मुश्किल भी हो चुकी थी ।
*** सफर-ए-इश्क में बड़ी संख्या में अज़ादारों ने शिरकत की |। 20 सफर को दुनिया भर से लोग चेहल्लुम करने इराक के शहर कर्बला पहुंचते हैं। यह सफर नजफ से शुरू होता है जो कर्बला पहुंचकर पूरा होता है। इस बीच अजादार 80 किमी पैदल चलकर अपनी मंजिल पर पहुंचते हैं। इसी तर्ज पर राजधानी में भी अरबईन वॉक का आयोजन हुआ, बक्शी का तालाब स्थित कर्बला-ए-अब्बासिया से एहसास-ए-अरबईन वॉक निकाली गई, जो सुबह नौ बजे शुरू हुवी। पिछले साल की इस साल भी अरबईन वॉक अपने निर्धारित मार्ग से होती हुई कर्बला तालकटोरा पहुंची ।
….चेहलुम के अवसर पर पदयात्रा सिर्फ कर्बला नहीं लखनऊ में भी आम हो रही है | लखनऊ से 30 किलो मीटर दूर बक्शी का तालाब से पिछले साल से जव्वार ए हुसैन अस पैदल यात्रा करके कर्बला तालकटोरा तक पहुंचते है | आपको बताते चले कि बक्शी का तालाब और कर्बला तालकटोरा के बीच 30 किलोमीटर का रास्ता अज़ादार कुछ घंटों में तय करके कर्बला तालकटोरा में नौहा ख़्वानी व सीना ज़नी करते है | अरबईन वॉक में सिर्फ मर्द ही नहीं वरन हर उम्र के लोग ख़्वातीन व बच्चे शामिल होते है | बक्शी का तालाब से पैदल सफ़ऱ करके आना मौला हुसैन अस से अक़ीदत व मोहब्बत के जज़्बे की मिसाल पेश करता है |
[quote] पैदल चलने को लेकर शिया धर्म में ये मान्यता रही कि हमारे ओलेमा ने भी अहलेबैत का अनुसरण करते हुए इस सुन्नत और रीत को जीवित रखा है और जहां तक संभव हो सका है इमाम हुसैन की ज़ियारत के लिए पैदल कर्बला की यात्रा की है | और यह रीत स्वर्गीय शेख़ अंसारी के ज़माने तक बाक़ी थी और बयान किया जाता है कि स्वर्गीय आख़ूनद ख़ुरासानी भी अपने साथियों के साथ पैदल करबला इमाम हुसैन की ज़ियारत के लिए जाया करते थे।
इमाम हुसैन अस की ज़ियारत को पैदल जाने की यह रीत मिर्ज़ा हुसैन नरी के ज़माने में और आगे बढ़ी उनके बारे में कहा जाता है कि वह हर साल बक्रईद में इमाम हुसैन के कुछ दूसरे ज़ाएरों के साथ पैदल नजफ़ से करबला जाते थे और उनकी यह यात्रा तीन दिन तक चलती थी।महमूद शाहरूदी के बारे में है कि आपने लगभग 260 बार कर्बला की पैदल यात्रा की जिसमें आपकी शागिर्द और दूसरे हौज़े का तालिबे इल्म आप का साथ दिया करते थे |[/quote]
कहा जाता है कि अल्लामा अमीनी जब भी करबला की यात्रा पर गए तो आप नजफ से करबला के बीच की अधिकतर दूरी पैदल तय किया करते थे धीरे धीरे यह रीत इतनी फैल गई की हौज़े के अधिकतर विद्यार्थी नजफ से करबला पैदल जाने लगे यहाँ तक कि वह जब चेहलुम या अरफ़ा का ज़माना नहीं होता था तब भी पैदल ही ज़ियारत को जाया करते थे।
बताते चले की गुज़िश्ता साल की तरह चेहलुम के जुलूस में हाय हाथ मिनंजजिल्लाह मर्द ख़्वातीन व बच्चों ने नौहा ख़्वानी व सीना ज़नी करते हुवे चले | पदयात्रा में लोगों ने हिस्सा लिया, मर्द ख्वातें हाथों में उलेमा ए कराम के फोटो लिए हुवे मातम करते हुवे चल रहे थे |
नाज़िम साहेब के इमामबाड़े के पास “है हाथ मिंन्जज जिल्लाह” की सबील पर नज़र गई,जुलूस जैसे ही आगे बढ़ा मर्द ख्वातीन और बच्चे मातम करते हाथ में बैनर और प्ले कार्ड लिए लब्बैक या ज़ैनब, लब्बैक या ज़ैनब, सालार ए ज़ैनब, लब्बैक या हुसैन और मातम करते हुवे चल रहे थे |