न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है न्यायिक सर्वोच्चता

0
219

शुभेन्द्र सिंह

न्यायाधीश धनंजय यशवंत (डी. वाई.) चंद्रचूड़ ने बीते बुधवार को भारत के पचासवें मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ ली। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने उन्हें राष्ट्रपति भवन में शपथ दिलाई। जस्टिस चंद्रचूड़ जस्टिस उदय उमेश ललित (जस्टिस यूयू ललित) का स्थान लेंगे तथा मुख्य न्यायाधीश के पद पर दो सालों तक बने रहेंगे।
उपर्युक्त बात एक खबर के रूप में चर्चा का विषय बना हुआ है। इसके अतिरिक्त हम यहाँ मुख्य न्यायाधीश या न्यायाधीशों के निर्वाचन और उनकी निष्पक्षता को सुनिश्चित करने के लिए हमारे संविधान के प्रावधानों की चर्चा करेंगे।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारत के संविधान की मूल संरचना है। हर समाज में व्यक्तियों के बीच, समूहों के बीच और व्यक्ति समूह तथा सरकार के बीच विवाद उठते हैं। इन सभी विवादों को ‘कानून के शासन के सिद्धांत’ के आधार पर एक स्वतंत्र संस्था द्वारा हल किया जाना चाहिए। ‘कानून के शासन’ का भाव यह है कि यह लिंग, जाति, वर्ग, धर्म के भेदभाव के बिना सभी लोगों पर एक समान कानून के रूप में लागू हो। न्यायपालिका की प्रमुख भूमिका यह है कि वह ‘कानून के शासन’ की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करे। न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है, विवादों को कानून के अनुसार हल करती है और यह सुनिश्चित करती है कि लोकतंत्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न ले ले।
इसके लिए अत्यंत आवश्यक है कि न्यायपालिका किसी भी राजनीतिक दबाव से मुक्त हो। इसके लिए यह प्रावधान किया गया है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में विधायिका को सम्मिलित नहीं किया जाए। इससे यह सुनिश्चित किया गया कि इन नियुक्तियों में दलगत राजनीति की कोई भूमिका नहीं रहे। न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति को वकालत का अनुभव या कानून का विशेषज्ञ होना चाहिए। उस व्यक्ति के राजनीतिक विचार या निष्ठाएँ उसकी नियुक्ति का आधार नहीं बननी चाहिए।

न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है। सेवानिवृत्त होने तक पद पर बने रहते हैं। केवल अपवाद स्वरूप विशेष स्थितियों में ही एक कठिन प्रक्रिया (महाभियोग) द्वारा ही न्यायाधीशों को हटाया जा सकता है। इसके अलावा, उनके कार्यकाल को कम नहीं किया जा सकता। कार्यकाल की सुरक्षा के कारण न्यायाधीश बिना भय या भेदभाव के अपना काम कर पाते हैं।

न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। संविधान के अनुसार न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते के लिए विधायिका की स्वीकृति नहीं ली जाएगी। न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती। अगर कोई न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाता है तो न्यायपालिका को उसे दंडित करने का अधिकार है। माना जाता है। कि इस अधिकार से न्यायाधीशों को सुरक्षा मिलेगी और कोई उनकी नाजायज आलोचना नहीं कर सकेगा। संसद न्यायाधीशों के आचरण पर केवल तभी चर्चा कर सकती है जब वह उनको हटाने के प्रस्ताव (महाभियोग) पर विचार कर रही हो। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से निर्णय करती है।

न्यायपालिका अपने कार्यों को निष्पक्षता तथा कुशलता से तभी कर सकती है जब वह स्वतंत्र हो। न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है कि न्यायाधीश स्वतंत्र , निष्पक्ष तथा निडर होने चाहिए। न्यायधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता से आशय है न्यायपालिका का सरकार के अन्य अंगों (विधायिका और कार्यपालिका) से स्वतन्त्र होना। इसका अर्थ है कि न्यायपालिका सरकार के अन्य अंगों से, या किसी अन्य निजी हित-समूह से अनुचित तरीके से प्रभावित न हो। यह एक महत्वपूर्ण परिकल्पना है।

प्रसिद्ध दार्शनिक, राजनीतिज्ञ, लेखक ‘फ्रांसिस बेकन’ ने न्यायाधीशों के बारे में कहा है कि “न्यायाधीशों को मज़ाकिया से अधिक प्रबुद्ध, प्रशंसनीय से अधिक श्रद्धेय और आत्मविश्वास से अधिक विचारपूर्ण होना चाहिये। सभी चीजों के ऊपर सत्यनिष्ठा उनकी औषधि एवं मुख्य गुण है। मूल्यों में संतुलन, बार कौंसिल और न्यायिक खंडपीठ के बीच श्रद्धा, स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली की बुनियाद है।”

लोकतांत्रिक देश में नागरिकों के अधिकार सर्वोपरि होते हैं। उनकी रक्षा का दायित्व भी न्यायपालिका का है। इसमें राज्य के प्राधिकार और नागरिकों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाया गया है, ताकि दोनों के शक्ति संबंधों में संतुलन बना रहे और राजनीतिक-प्रशासनिक प्रणाली के कार्यो में कोई व्यवधान न हो। तभी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा सही साबित हो सकती है और तभी संवैधानिक लक्ष्यों की प्राप्ति भी संभव है। इसके लिए संविधान ने राज्य और नागरिक, दोनों की ही शक्तियों के प्रयोग की सीमा का निर्धारण किया है। राज्य-नागरिक शक्ति संबंधों को संतुलित करने के लिए भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता अनिवार्य है। यही स्वतंत्रता उसे निष्पक्ष और जवाबदेह बनाती है।

 

Also read

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here