तनवीर जाफ़री
एक बार फिर रमज़ान जैसे पवित्र एवं इबादत के महीने में अफ़ग़ानिस्तान के मज़ार-ए-शरीफ़ शहर और कुंदुज़ शहर में मस्जिद के पास हुये बम धमाकों में 15 लोगों की मौत और 65 से अधिक गंभीर रूप से ज़ख़्मी हुये हैं। ख़बर है कि इन हमलों की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली है। और हमलों के मास्टर माइंड आईएसआईएस का प्रमुख ऑपरेटिव अब्दुल हमीद संगयार नमक व्यक्ति को गिरफ़्तार भी किया गया है। इस घटना ने एक बार फिर पूरे विश्व का ध्यान अफ़ग़ानिस्तान की ओर आकर्षित किया है। इस घटना के मात्र दो दिन पूर्व ही काबुल के पास अब्दुल रहीम शाहिद हाई स्कूल में तीन धमाके हुए थे। इसमें छह लोगों की मौत की ख़बर आई थी और एक दर्जन से अधिक लोग घायल हुये थे।इसके पहले भी गत वर्ष 8 मई को राजधानी काबुल में एक स्कूल के पास एक बड़ा बम ब्लास्ट किया गया था। इस घटना में 50 से अधिक लोगों की मौत हुई थी जबकि 100 से ज़्यादा लोग घायल हो गए थे। उसके बाद 14 नवंबर 2021 को काबुल के ही एक शिया बाहुल्य क्षेत्र में बम ब्लास्ट हुआ जिसमें 6 लोगों की मौत हुई और 7 लोग गंभीर रूप से घायल हुये। इस घटना के अगले ही दिन 15 नवंबर 2021 को कंधार प्रांत की एक मस्जिद में धमाका हुआ था जिसमें 32 लोगों की मौत हो गई थी जबकि 40 लोग घायल हो गए थे। अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के गत वर्ष पुनः जबरन क़ब्ज़ा करते ही काबुल के एयरपोर्ट के पास तीन धमाके हुए थे। इन धमाकों में भी 100 से अधिक लोगों की मौत हुई थी जबकि 120 से अधिक लोग घायल हुए थे।
मुसलमान इस्लाम को चाहे जितना शांति सद्भाव तथा समानता वाला धर्म क्यों न बतायें परन्तु अपने उद्भव काल से ही यानी इस्लाम धर्म के प्रवर्तक व अंतिम पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के जीवन काल में ही इस्लाम उदार व कट्टरवाद की दो अलग अलग धाराओं में बंट गया था। मस्जिदों में नमाज़ियों को क़त्ल करने की प्रवृति भी कोई नई नहीं है। यह तालिबान,इस्लामिक स्टेट अथवा अलक़ायदा द्वारा शुरू किया गया सिलसिला नहीं है। बल्कि इसकी शुरुआत 19 रमज़ान 40 हिजरी तदानुसार 26 जनवरी 661 ईस्वी को उसी समय हो गयी थी जबकि पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के चचेरे भाई और दामाद अर्थात हज़रत मुहम्मद की इकलौती बेटी हज़रत फ़ातिमा के पति हज़रत अली को इराक़ के कूफ़ा शहर की मशहूर ‘मस्जिद-ए-कूफ़ा ‘ में नमाज़ अदा करते वक़्त उस समय शहीद किया गया था जबकि वे नमाज़ में सजदे की हालत में थे। उनका हत्यारा इब्न-ए-मुल्जिम था। सोचने का विषय है कि जिन हत्यारों ने अफ़ग़ानिस्तान में शियों की सामूहिक हत्या करने के लिये उसी दिन (19 रमज़ान ) का चुनाव किया हो उनका आदर्श व प्रेरक हज़रत अली का हत्यारा इब्न-ए-मुल्जिम नहीं तो और कौन हो सकता है ?
अली,फ़ातिमा और करबाला में हुसैन और उनके परिवार के लोगों पर ढहाये गये ज़ुल्म व बर्बरता की यदि विस्तृत दास्तान पढ़िये तो रूह काँप उठती है। आज उन हत्यारों के पैरोकार उसी काले इतिहास को दोहराकर जहाँ हज़रत मुहम्मद के घराने के लोगों से अपनी रंजिश साबित कर रहे हैं वहीं हत्यारों व इस्लाम को कलंकित करने वालों से अपने रिश्तों पर भी मुहर लगा रहे हैं। अन्यथा रमज़ान में इबादत गुज़ारों,भूखे प्यासों की हत्यायें,निहत्थे लोगों का क़त्ल यह आख़िर किस इस्लाम की शिक्षा है ? इस्लामी इतिहास में इस तरह के काम तो यज़ीद और इब्ने मुल्जिम जैसे लोगों या उनके पैरोकारों ने ही किये हैं। और उन घटनाओं का कलंक आज तक इस्लाम का इतिहास ढोता आ रहा है। जिन क्रूर ताक़तों के हाथों इस्लाम का अपहरण किया जा चुका है उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है कि – ऐ इस्लाम:हाफ़िज़ ख़ुदा तुम्हारा।
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