एस.एन.वर्मा
मो.7084669136
रेप तो रेप ही होता है। चाहे मैरिटल रेप हो या अन्य रेप इसको लेकर कोर्ट में बहस चल रही है कुछ फैसले भी आये है, अपीले भी जोर पर है। किसी संस्था का पवित्रता के नाम पर नियमों से जकड़कर उस पर सीना जोरी चलाना भी तो रेप की तरह का अपराध बनेगा। इच्छा के विरूद्ध कुछ करने के लिये मजबूर करना आदमी की इच्छाओं के साथ रेप करना हो तो होगा आदमी बीबी के इच्छा के विरूद्ध अगर सेक्स करता है तो उसे मेरिटल रेप कहा जाये या नहीं इसे लेकर बहस चल रही है। कुछ लोगो की राय है कि चूकि बीवी आदमी की शादी शुदा औरत होती है इसलिय उसको अधिकार है वीवी आदमी की शादीशुदा औरत होती है इसलिये उसको अधिकार है पत्नी की इच्छा के विरूद्ध भी सेक्स करने का यह तो अमानवीय गुलामी है जिसमें एक पक्ष सनतुष्ट होता है। आज जमाने में बराबरी की बयार बह रही है। खास कर औरतो को बन्धनों से मुक्त कर वाजिब स्वतन्त्रता देने के लिये। संविधान में भी बिना लिंग भेद से सबकों बराबरी और स्वन्त्रता का अधिकार प्रदान है।
अब इससे सम्बन्धित कोर्ट की कार्यवाई पर नज़र डाले तो अभी दिल्ली हाईकोर्ट का जो बटा हुआ फैसला आया है उचित नहीं लगता है। एक जज ने इस कानूनी सुरक्षा को असंवैधानिक बताते हुये इसे संविधान की धारा 14,15,19(1) और 21 का अल्लंघन बताया है। पर दूसरे जज ने इसे तर्कसंगत बताया है। धारा 375 के लिहाज से अगर कोई पति अपनी पत्नी के साथ उसकी इच्छा के विरूद्ध सेक्स करता है, अगर पत्नी की उम्र 18 साल से कम नहीं है तो रेप नहीं माना जायेगा। स्त्री पुरूष के समानता के पक्षघर इससे सहमत नहीं है वे वैवाहिक सम्बन्ध को जादा न्यायपूर्ण बनाने पर जोर दे रहे है। कई देशों में इस तरह की कोशिश चल रही है। ब्रिटेन ने बहुत पहले मैरिटल रेप को अपराध घोषित कर दिया है। और भी कई देश इसे अपराध घोषित कर चुके है।
सरकार का रवैया इस कानून को लेकर अभी स्पष्ट नहीं है। सरकार ने 2017 मे एक हलफनामा दायर किया था और कहा था। मैरिटल रेप को कानूनी अपराध बनाने से शादी की पवित्र संस्था में बिखराव आ जायेगा। सरकार का कहना है यह पतियों को प्रताड़ित करने का मारक हथियार बन जायेगा। वैवाहिक संस्था घोर अराजकता के भंवर में फंस सकती है। पर यह सोचने की बात है और देखा भी जा रहा कि अच्छे से अच्छे कानून का अपराधी तत्व गलत इस्तेमाल करते है अपने प्र्रतिस्पर्धियों और दुश्मनों को फंसाने का काम लेते है।
सरकार ने बाद में अदालत से कहा कि वह अपने इस रूख पर फिर से विचार कर रही है। इसके बाद सरकार ने यह भी कहा कि इस मुद्दे को महज़ एक कानूनी प्रावधान की वैधानिक वैघता की नज़रिये से नहीं देखा जाना चाहिये क्योंकि देश के लिये इसके दूरगामी कानूनी और सामाजिक मतलब है। सरकार कोर्ट से अभी अपना रूख स्पष्ट करने के लिये और समय मांग रही है। कोर्ट ने नारज़गी जताते हुये कहा अगर आप चाहते है हम इस मामले पर सुनवाई अनिश्चित काल के लिये टाल दे तो ऐेसे नहीं होनेे वाला है। कोर्ट का यह रूख स्वागत योग्य है। यह कहावत भी है कि कानूनी फैसले में देरी कानून के प्रावधानांे से वंचित होने के समान है। विवाहेतर सम्बन्धों को काूनन अपराध न माने जाने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के सुनवाई के दौरान तब भी सरकार की यही दलील थी कि इससे विवाह संस्था की पवित्रता को खतरा पैदा हो जायेगा। पर सोचने की बात है जिन देशों मेें यह कानून लागू है क्या वहां शादी की पवित्रता नष्ट हो गई है। भारत में जो वैवाहिक कानून लागू है वह पवित्रता की कितनी रक्षा कर पा रहा है। यहां भी सम्बन्ध विच्छेद होते है, तलाक होते है, पति पत्नी एक दुसरे की हत्या भी कर देते है। भारत मे भी लिवइन चल रहा है कानूनी दर्जा मिला हुआ है। क्या पवित्रता की नई परिभाषां गढ़नी होगी। जब सरकार का इस मामले स्पष्ट रूख नहीं है तो कार्यपालिका क्या कर सकती है। विधयिका तो सरकार ही होती है। जब सरकार, कार्यपालिका विधायिका किसी न्यायोचित मांग पर अनिश्चितत अख्यिार करले तो न्यायपालिका ही आखिर आस बचती है। जेन्डर जस्टिस पर स्वष्ट राय और कानून बनना ही चाहिये।